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जैन कथा कोष ८६ षट् खण्ड धरा पर अधिकार कर लिया । दिग्विजय करने में इन्हें छः सौ वर्ष लगे तथा चक्रवर्ती पद पर अभिषिक्त हुए। अंत में वर्षीदान देकर एक हजार पुरुषों के साथ उन्होंने दीक्षा ली। सोलह वर्ष छद्मावस्था में रहे। केवलज्ञान प्राप्त करके तीर्थ की स्थापना की। इनके तीर्थ में स्वयंभू प्रमुख पैंतीस गणधर थे। भगवान् का संघ बहुत विशाल था। यों जनता का कल्याण करते हुए प्रभु ने एक मास के अनशन में एक हजार साधुओं के साथ सम्मेद शिखर पर्वत पर वैशाख बदी १ को मोक्ष प्राप्त किया।
धर्म-परिवार
गणधर
केवली साधु केवली साध्वी
मनः पर्यवज्ञानी
अवधिज्ञानी
पूर्वर
३५
३,२००
६,४००
३,३४०
२,५००
६७०
वादलब्धि
वैक्रियलब्धिधारी
२,०००
५,१००
६०,०००
६०,६००
श्रावक
१,७६,००
श्राविका
३,८१,०००
— त्रिषष्टि शलाकापुरुष चरित्र, पर्व ६
साधु
साध्वी
५३. कुबेरदत्त (अठारह नाते )
प्राचीन काल में मथुरा नगरी अपनी समृद्धि के लिए भारत-भर में विख्यात थी । उसमें एक ओर वेश्याओं का मोहल्ला था । उस मोहल्ले में कुबेरसेना नाम की एक वेश्या रहती थी। उसके युगल सन्तान — अर्थात् एक लड़का और एक लड़की उत्पन्न हुई । पुत्रवती वेश्या के पास ग्राहक नहीं आते—यह सोचकर उसने दोनों शिशुओं को काष्ठ की एक पेटिका में बंद कर कुबेरदत्त तथा कुबेरदत्ता नाम की दो मुद्रिकाएं पेटिका में रख दीं तथा फिर उसे यमुना नदी में बहा दिया ।
पेटी नदी की धारा पर बहती हुई शौरीपुर पहुँची । वहाँ दो सेठ स्नान कर रहे थे। उन्होंने पेटी मल्लाहों से निकलवाई। दो नवजात शिशुओं को देखकर चकित रह गये। दोनों सेठों ने एक-एक शिशु को ले लिया और मुद्रिकाओं पर अंकित नामों के अनुसार उनके नाम भी कुबेरदत्त - कुबेरदत्ता रख दिये ।
धीरे-धीरे दोनों बालक-बालिका बड़े हुए और उनका परस्पर विवाह कर दिया गया। लेकिन सुहागरात को ही दोनों ने एक-दूसरे को देखा तो उन्हें चेहरों