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८४ जैन कथा कोष - आना एक-जैसा है, क्योंकि उसे अपने धर्म का गर्व है। वह अन्य धर्मावलम्बी साधुओं के सामने कभी झुकने के लिए तैयार नहीं है।
राजा के गुरु का अहं जाग उठा। आक्रोशपूर्वक बोले—'मैं कल ही कार्तिक सेठ को झुका दूँगा।' __ दूसरे ही दिन राजा ने गुरुजी को भोजन का निमंत्रण दिया । गुरुजी ने इस शर्त पर भोजन का निमंत्रण स्वीकार किया—यदि कार्तिक सेठ की पीठ पर थाल रखकर मुझे भोजन कराओ, तभी मैं भोज करूंगा, अन्यथा नहीं।
दूसरे दिन राजा ने कार्तिक सेठ को बुलाकर सारी बात कही। सेठ राजा की आज्ञा का उल्लंघन नहीं कर सकता था। उसे स्वीकृति देनी ही पड़ी। __गुरुजी आकर बैठे। सेठ को उसी ढंग से बिठाया गया, जिससे भोजन का थाल आसानी से उसकी पीठ पर रखा जा सके। गर्म-गर्म खीर से थाल भरकर गुरुजी ने सेठ की पीठ पर रखवाया। अनेकानेक नखरे से गुरुजी ने भोजन किया। सेठ की पीठ जल रही है, इसकी चिन्ता किसे? गुरु ने अपने अहं की पूर्ति की।
सेठ अपने घर आया और मन में विचार करने लगा कि इस संसार को धिक्कार है, जहाँ राजा के अनुचित आदेश भी मानने पड़ते हैं। यों विचार कर उसने संयम स्वीकार कर लिया। संयम और तप के प्रभाव से प्रथम स्वर्ग का इन्द्र (शकेन्द्र) बना।
उधर वह सेठ की पीठ जलाकर जीमने वाला तापस भी शकेन्द्र के आज्ञाधीन ऐरावत हाथी के रूप में पैदा हुआ। अवधिज्ञान से जब हाथी ने अपना पूर्व-भव देखा, तब उसे ज्ञात हुआ कि पूर्व-भव में मैं तापस था और यहं सेठ था। अब यह मेरी सवारी कर रहा है। यों विचार करके विकुर्वणा में अपने दो रूप बना लिये। दो रूप देखकर इन्द्र ने एक पर अपना दण्ड रख दिया और दूसरे पर स्वयं बैठ गया। तब इसने तीसरा रूप बना लिया। इन्द्र ने अपनी तीसरी वस्तु उस पर रख दी। यों वह अपने रूप बनाता है और इन्द्र महाराज अपनी कोई-न-कोई चीज इस पर रख देते हैं। परन्तु जब शकेन्द्र महाराज ने अपने अवधिज्ञान का उपयोग लगाकर देखा तो पता लगा कि यह तो मेरे पूर्व जन्म का वैरी तापस है। यहाँ अपने उच्चत्व के अभिमान में आकर यों विकुर्वणा कर रहा है, तब इन्द्र ने उस पर अपने वज्र का प्रहार किया। वज्र के लगते ही हाथी ने अपने विकुर्वणा का संवरण कर लिया और पूर्णत: