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जैन कथा कोष ७७
अब विधवा सेठानी चम्पा किसी ऐसे व्यक्ति की खोज में लगी, जिसे वह 'अपने घर में बन्द करके रख सके और जिसके माध्यम से अपनी बहुओं को पुत्रवती बनवा सके, ताकि उसका धन उसी के पास सुरक्षित रहे ।
ढूंढती - खोजती विधवा सेठानी वहीं आ गई जहाँ कृतपुण्य सो रहा था । उसने चार भृत्य बुलवाकर कृतपुण्य को उठवाया और अपने घर ले आयी । अपनी बहुओं से उसने कहा- 'बहुओं ! मेरा एक बेटा बचपन में ही घर से चला गया था। आज यक्ष ने मुझे बताया कि बाहर गुणशीलक उद्यान के चैत्यालय में वह सो रहा है। इसलिए मैं इसे सोते ही उठवा लायी हूँ। अब देवाज्ञा से तुम सब इसे ही अपना पति मानो !'
यद्यपि बहुओं को सेठानी की बात पर विश्वास नहीं हुआ, किन्तु उन्हें उसकी बात माननी पड़ी, क्योंकि घर में उसी का शासन चलता था ।
इधर जब कृतपुण्य की नींद टूटी तो अपने को इस दुर्ग जैसे भवन में देखकर बहुत चकराया। सेठानी चम्पा ने उससे कहा— 'तुम मेरी चारों पुत्रवधुओं को अपनी पत्नी मानो, उनके पति बनकर यहीं रहो।' साथ ही धमकी भी दे दी कि 'यदि मेरी बात नहीं मानोगे तो इस भवन के तलघर में तड़प-तड़पकर मरना पड़ेगा ।' कृतपुण्य इस धमकी के सामने विवश हो गया। वहीं रहने लगा। बारह वर्ष तक वह वहीं रहा और विधवा सेठानी चम्पा की चारों पुत्रवधुओं के चार-चार पुत्र हो गये। अब सेठानी चम्पा को कृतपुण्य की कोई जरूरत नहीं थी । उसका स्वार्थ सिद्ध हो चुका था । उसने बहुओं को आदेश दिया कि इसे निकाल दो।
बहुओं ने सास की खुशामद करके पाथेय रखने की स्वीकृति ले ली । स्वीकृति पाकर चारों ने चार मोदक बनाये और प्रत्येक में एक- एक बहुमूल्य
छिपा दिया । मोदकों की पोटली कृतपुण्य के सिहारने रखकर इसे सोता हुआ ही गुणशीलक उद्यान के उसी चैत्यालय में रखवा दिया । निद्रा खुलने पर सुबह कृतपुण्य मोदकों की पोटली सहित अपने घर पहुँचा । उसका अपना पुत्र विजय भी अब बारह वर्ष का हो चुका था । जयश्री और विजय दोनों ही कृतपुण्य को देखकर बहुत खुश हुए।
जयश्री ने उन मोदकों में से एक मोदक विजय को खाने के लिए दे दिया। विजय मोदक लेकर बाहर चला गया और उसे तोड़कर खाने लगा । अन्दर पति-पत्नी वियोग के दिनों की बातें करने लगे ।