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जैन कथा कोष ७५ सबसे बड़ा दुःख था, जिसके कारण वे धन के भण्डार और विशाल सुखसाधनों के मध्य रहकर भी निरंतर दुःखी रहते थे ।
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काफी आयु बीतने के बाद सेठ-सेठानी के कृत पुण्य उदय में आये सेठानी गर्भवती हो गई। उसने सुन्दर तेजस्वी पुत्र को जन्म दिया। श्रेष्ठी धनदत्त ने बड़े उत्साह से पुत्र - जन्मोत्सव मनाया । सम्पूर्ण नगर ने बधाईयाँ दीं । समारोहपूर्वक पुत्र का नाम कयवन्ना शाह ( कृतपुण्य) रखा गया ।
धीरे-धीरे कृतपुण्य युवा हो गया। इसका विवाह इसी नगरी में सेठ सागरदत्त की पुत्री जयश्री के साथ कर दिया गया ।
जयश्री कुलीन थी और कृतपुण्य लोक व्यवहार से अनभिज्ञ। वह नहीं जानता था कि पत्नी से किस प्रकार का व्यवहार किया जाता है। कुलीन होने के कारण जयश्री भी अपनी ओर से उसे तनिक भी संकेत नहीं देती थी । अपनी अनभिज्ञता के कारण कृतपुण्य जयश्री के प्रति उदासीन रहता, दाम्पत्य सुख का भोग न करता ।
कृतपुण्य की यह उदासीनता और गृहस्थ- सुख-भोग की अनभिज्ञता उसकी माता वसुमती से छिपी न रही । उसने पुत्र से तो कुछ न कहा, पर अपने पति धनदत्त से आग्रह किया तथा हठ ठानकर बैठ गई कि 'कृतपुण्य को नगर की वेश्या देवदत्ता के पास भेज दिया जाये। वह इसे काम कला में प्रवीण कर देगी। तब यह स्त्री-सुख के बारे में जानकर हमारी वंश-वृद्धि कर सकेगा । '
श्रेष्ठी धनदत्त ने पत्नी को बहुत समझाया, वेश्याओं के अवगुण बताये, वेश्यागमन की हानियाँ तथा कुल के कलंकित होने की बात कहीं; लेकिन त्रिया-हठ के आगे उसकी एक न चली। आखिर पिता की प्रेरणा और मित्रों के माध्यम से कृतपुण्य वेश्या देवदत्ता के भवन में पहुँच ही गया । वेश्या देवदत्ता के घर में उसे मदिरा पान आदि अन्य व्यसन भी लग गये। देवदत्ता ने अपने हाव-भावों से उसे पूरी तरह अपने वश में कर लिया ।
देवदत्ता की माँ थी सुलोचना । वह बड़ी ही अनुभवी थी । उसे ग्राहकों से धन ऐंठना खूब आता था । उसने कृतपुण्य को भी अपने वाग्जाल में फँसाया कि उसने एक हजार स्वर्ण मुद्राएं प्रतिदिन अपने घर से मँगाकर देने का वायदा कर दिया; और पिता धनदत्त ने भी पुत्र के वायदे को पूरा करने का वचन दे दिया ।
अब श्रेष्ठी धनदत्त के घर से नित्य एक हजार मुद्राएं आने लगीं । देवदत्ता का घर भरने लगा और धनदत्त का घर खाली होने लगा ।