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जैन कथा कोष ५५ इलाचीकुमार एक प्रहर तक बाँस पर चढ़ा अपनी कला दिखाता रहा। इसके बाद वह नीचे उतरा और राजा को सलाम किया। उसका अभिप्राय राजा से पुरस्कार पाना था। लेकिन राजा उसे पुरस्कार देना कब चाहता था? वह तो उसके प्राणों का बलिदान चाहता था। उसने कह दिया—'अभी तो मुझे तुम्हारी कला में आनन्द ही नहीं आया, और दिखाओ।'
इलाचीकुमार दुबारा बाँस पर चढ़ा। प्रहर भर तक फिर कला दिखाई और पुनः पुरस्कार की याचना की। फिर भी उसे राजा का यही जवाब मिला।
तीसरी बार कला दिखाकर जब उसने पुरस्कार माँगा, तब भी यही उत्तर राजा की ओर से मिला। अब तो इलाचीकुमार खिन्न हो गया। तीन प्रहर के कठोर परिश्रमपूर्वक कला-प्रदर्शन से उसका अंग-अंग दुख रहा था। अब उसके शरीर में शक्ति बाकी नहीं रह गई थी। वह यह भी समझ गया कि राजा नट-कन्या के प्रति आकर्षित है। इसीलिए वह बार-बार आनन्द न आने की बात कह रहा है। वह चाहता है कि मैं बाँस पर से गिरकर धराशायी हो जाऊँ, जिससे वह नट-कन्या को आसानी से हथिया सके।
इलाचीकुमार की इच्छा अब प्रदर्शन की नहीं थी, लेकिन नट-कन्या के उत्साहित करने पर वह पुनः बाँस पर चढ़ा और कला दिखाने लगा। तभी उसकी दृष्टि एक निस्पृह संत पर पड़ी। वे श्रमण एक सद्गृहस्थ के घर से आहार ले रहे थे। आहार देने वाली गृहिणी अत्यन्त रूपवती और रत्नाभूषणों से लदी थी। उसके रूप के सामने नट-कन्या का रूप तो अत्यन्त हीन था। फिर भी वे मुनि उस गृहिणी की ओर देख भी नहीं रहे थे। नीचे दृष्टि किये
आहार ले रहे थे। ___यह दृश्य देखते ही इलाचीकुमार की विचारधारा पलटी। वह सोचने लगा–कहाँ ये निस्पृह श्रमण और कहाँ मैं ! ये देवांगना सरीखी सौन्दर्य की मूर्ति की ओर देख भी नहीं रहे हैं, और मैं एक नट-कन्या के पीछे पागल बना हुआ हूँ। अपनी जिन्दगी का अनमोल समय मैंने यों ही इस शरीर-सौन्दर्य में आसक्त बनकर खो दिया। आत्मिक सौन्दर्य—आत्मा के सद्गुणों की ओर दृष्टिपात न किया। अब तो आत्मा के स्वरूप में रमण करूं, आत्म-चिन्तन करूं।
बस, इलाचीकुमार के मन में चरित्र के भाव उदित हुए, भावधारा