________________
५४ जैन कथा कोष मेरे पुत्र के साथ कर दें; मैं आपको आपकी कन्या के बराबर तोलकर सोना दे दूँगा। लेकिन नटराज ने यह सौदा मंजूर नहीं किया। उसने कहा—'पिता के धन पर आश्रित पुत्र को मैं अपनी कन्या नहीं दे सकता। यदि उसे मेरी पुत्री से विवाह ही करना है तो पहले वह हमारी नट-विद्या सीखे, फिर इस कला से धन का उपार्जन करे और उस धन से हमारी पूरी जाति को भोज आदि देकर प्रसन्न करे, तब उसके साथ मेरी पुत्री का विवाह हो सकता है।'
नटराज की इस शर्त को सुनकर धनदत्त बहुत निराश हुआ । घर आकर सब बात कही और पुत्र को फिर समझाया लेकिन इलाचीकुमार का तो रोम-रोम नट-कन्या के मोह में डूबा हुआ था, वह पिता की शिक्षा को कैसे सुनता और क्यों मानता? उसने तो सिर्फ नटराज की शर्त ही सुनी और उसे पूरा करने का दृढ़ निश्चय कर लिया।
एक रात वह बिना किसी को बताये घर से निकल गया और नट-मंडली में जा मिला। बड़े मनोयोग से उसने नट-विद्या सीखी और शीघ्र ही कुशल हो गया। वह नट-मंडली के साथ-साथ गाँव और नगरों में जाने लगा तथा अपनी कला का प्रदर्शन करने लगा। उसका नाम दूर-दूर तक विख्यात हो गया था और अब उसे कला-प्रदर्शन के लिए धनिकों तथा राजाओं के निमंत्रण भी मिलने लगे।
एक बार एक राजा के निमंत्रण पर वह अपनी कला दिखाने पहुंचा। साथ में वह नट-कन्या भी थी और नट-मंडली के अन्य सदस्य भी थे। इलाचीकुमार को राजा से प्रभूत पुरस्कार मिलने की आशा थी। उसे विश्वास था कि अपनी कला द्वारा राजा से इतना धन प्राप्त कर लूँगा कि नटराज की शर्त पूरी करके उसकी कन्या से विवाह कर सकूँ।
खेल शुरू हुआ। इलाचीकुमार बाँस पर चढ़कर अपनी अद्भुत कला का प्रदर्शन करने लगा। नीचे खड़ी नट-कन्या उसका उत्साह बढ़ा रही थी। हजारों की भीड़ उसकी कला पर मुग्ध हो रही थी। लेकिन राजा की दृष्टि ज्यों ही नट-कन्या पर पड़ी, वह उस पर मोहित हो गया। नट-कन्या और इलाचीकुमार के हाव-भावों से वह समझ गया कि जब तक यह नट नहीं मरेगा, तब तक नट-कन्या मेरे हाथ नहीं लगेगी। उसने मन-ही-मन नट-कन्या को पाने का दृढ़ निश्चय कर लिया। यहाँ तक सोच लिया कि खेल-ही-खेल में इस नट के प्राण ले लूँगा।