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४६ जैन कथा कोष
३३. आराम शोभा
'कुसट्ट' देश में 'बलासा' नाम का एक छोटा-सा गाँव था । यहाँ अग्निशर्मा नाम का एक ब्राह्मण रहता था । उसकी पत्नी का नाम 'अग्निशिखा' था । अग्निशर्मा पुरोहिताई द्वारा जीवन यापन करता था । यजमानों की दी हुई कुछ गायें भी उसके पास थीं। वैसे वह बहुत ही संतोषी और सरल वृत्ति का था ।
अग्निशर्मा की एक पुत्री थी, उसका नाम था विद्युत्प्रभा । अभी विद्युत्प्रभा पाँच वर्ष की ही थी कि उसकी माता अग्निशिखा उसे बिलखती हुई छोड़कर स्वर्ग सिधार गई । घर के सारे कार्य का भार पाँच वर्ष की अबोध बालिका विद्युत्प्रभा पर आ पड़ा। बालिका के कार्यभार को हल्का करने की इच्छा से अग्निशर्मा ने दूसरा विवाह कर लिया ।
लेकिन नयी माँ के आने से विद्युत्प्रभा का कार्यभार कम न हुआ, वरन् दुगुना हो गया। नयी माँ के साल भर में एक कन्या भी हो गई। अब तो विद्युत्प्रभा पर कार्य का भार और भी बढ़ गया । वही घर का पूरा काम करती और दोपहर के समय समीप के वन में गाएँ चराने भी जाती। अब तक वह बारह वर्ष की हो चुकी थी ।
एक दिन वह वन में एक बबूल की छितरी छाया में बैठी थी, पास ही उसकी गाएँ चर रही थीं। इतने में उसने अपने सामने एक सर्प को देखा, तो वह डर गई। उस सर्प ने मानव वाणी में कहा— 'डरो मत! कुछ गारुड़िक मेरे पीछे पड़े हैं। मुझे छिपा लो, मेरी रक्षा करो। मैं तुम्हारी शरण में हूँ । '
विद्युत्प्रभा ने परोपकार मानकर उस सर्प को अपनी गोद में छिपा लिया । इतने में गारुड़ी आ गये । उन्होंने उससे पूछा—'तुमने इधर से जाते हुए किसी सर्प को तो नहीं देखा है ?' उसने कह दिया- 'मैं तो सर्प के नाम से ही डरती हूँ ।' निराश होकर गारुड़ी वापस चले गये ।
उनके जाने के बाद विद्युत्प्रभा ने देखा तो सर्प गायब हो चुका था । तभी उसने देखा कि सामने एक देव खड़ा था। उसने विद्युत्प्रभा से वरदान माँगने को कहा । विद्युत्प्रभा ने माँगा — 'मेरी गायों के लिए छायादार वृक्ष खड़े कर दीजिये ।' उसकी इस परोपकार भावना से देव और भी प्रसन्न हुआ । उसने दिव्य वृक्षों से सुशोभित एक मनोरम उद्यान खड़ा कर दिया और कहा - ' यह उद्यान सदा तेरे साथ रहेगा। तू जहाँ भी जायेगी, यह तेरे साथ ही जायेगा ।