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जैन कथा कोष ३१
२५. अर्जुनमाली
'अर्जुनमाली' ने मगध देश की राजधानी राजगृही में रहने वाला एक माली था । इसकी पत्नी का नाम था बन्धुमती । दोनों पति-पत्नी नगर के बाहर एक बगीचे में रहते थे। उसी बगीचे में 'मुद्गरपाणि' नामक यक्ष का मन्दिर था । अर्जुन अपनी पत्नी के साथ बगीचे से फूल बीनता, बीने हुए फूलों से यक्ष की भक्ति - भाव से पूजा करता और फूलों को ले जाकर नगर में बेच आता । यों वह अपनी आजीविका चलाता था ।
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एक दिन दोनों ही पति-पत्नी बगीचे में थे । अर्जुन यक्ष की पूजा में लीन था तथा उसकी पत्नी बन्धुमती दूसरी ओर फूल बीन रही थी । इतने में उसी नगर में रहने वाले छ: मित्र वहाँ बगीचे में आये । ये छहों वैसे ही दुरात्मा थे। बन्धुमती को देखकर इन पर कामुकता का नशा बुरी तरह छा गया । अपना विवेक वे पूर्ण रूप से खो बैठे। आव देखा न ताव, अर्जुन को उस यक्ष की प्रतिमा से ही बाँधकर बन्धुमती से बलात्कार करने लगे। अपनी स्त्री का यों पतन अपनी आँखों के सामने भला कौन देख सकता है? अर्जुन में आक्रोश बुरी तरह उमड़ पड़ा और लगा यक्ष की प्रतिमा को आड़े हाथों कोसने । रोषारुण होकर कहने लगा —— - 'रे यक्ष ! बचपन से तेरी सेवा करता आया हूँ | तूने मेरी सेवा ही ली, पर बदले में दिया यह पतन, जो एक पशु भी नहीं देख सकता । या तो मेरी सहायता कर अन्यथा... |'
अर्जुन का यों उलाहना सुनकर यक्ष ने अर्जुन के शरीर में प्रवेश किया । तब पौरुष तो बढ़ना ही था । उसने अपने बंधन कच्चे धागे के समान तोड़ दिये और उसी यक्ष की प्रतिमा के हाथ में लगे मुद्गर को लेकर अर्जुन उन छहों
ओर लपका। उन छहों मित्रों को तथा बन्धुमती को समाप्त कर दिया; पर फिर भी अर्जुन का क्रोध शान्त न हुआ । उन्हें मारकर नगर की ओर दौड़ गया । जो भी मिला, उसे मारने लगा। नगर में हाहाकार मच गया। राजा को पता लगते ही नगर के द्वार बन्द करवा दिये गये । अर्जुन हाथ में यक्ष का मुद्गर लिये नगर की चारदीवारी के बाहर घूमता रहता और वहाँ जो भी मिलता, उसे यमलोक पहुँचा देता। यों पाँच महीने तेरह दिन तक यक्षावेष्टित अर्जुन वहाँ घूमता रहा और ११४१ मनुष्यों को समाप्त कर दिया। मरने के भय से नगर से बाहर निकलने की कोई हिम्मत नहीं करता था ।