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जैन कथा कोष ३७
जब उन्होंने समझ लिया कि मुनि भी हमारे प्रति आकर्षित हैं तो उन्होंने कहा—' हे स्वामी ! हम दोनों आप पर आसक्त हैं। अब हमारे प्राण आपके हाथ में हैं। आप हमें स्वीकार करके यहीं रहिए और सभी प्रकार के सुख भोगिए । '
आकर्षित तो मुनि अषाढ़ भूति भी थे, उनके हृदय में भी प्रेम - राग उत्पन्न हो चुका था, अतः बोले- 'मैं अपने गुरुदेव और धर्माचार्य की आज्ञा लेकर ही इस बात का जवाब दूँगा । '
नट-कन्याओं ने अधीरता दिखाते हुए कहा--' आपके विरह की अग्नि हमें तिल-तिल जला रही है। एक पल को भी हमें चैन नहीं पड़ता है। न जाने आपके गुरुदेव कब आज्ञा दें, दें अथवा नहीं? लेकिन हमारे तो आपके वियोग में प्राण ही निकल जायेंगे । '
'ऐसा नहीं होगा। मैं गुरुदेव की आज्ञा लेकर शीघ्र ही आऊँगा ।' यह आश्वासन देकर मुनि सीधे गुरुदेव के पास पहुँचे और रजोहरण तथा मुखस्त्रिका पात्र आदि रखकर बोले— 'गुरुदेव ! आप यह मुनि वेश संभालिए । मैं तो गृहस्थ आश्रम स्वीकार कर रहा हूँ। दो नट- कन्याएँ मेरे बिना प्राण छोड़ने को तत्पर हैं। मैं तो उनके पास जा रहा हूँ।'
मुनि अषाढ़भूति की यह बदली हुई प्रवृत्ति देखकर पहले तो गुरुदेव अवाक् रह गये । फिर उन्होंने बहुत समझाया, संयम के लाभ बताये और संयमभ्रष्ट होने की हानियाँ विस्तार से बताईं, लेकिन अषाढ़ भूति पर कोई प्रभाव न हुआ। वे नट- कन्याओं के पास जाने को अड़े रहे । अन्त में जब गुरुदेव ने समझ लिया कि अषाढ़ भूति को समझाना व्यर्थ है तो कहा - ' शिष्य ! यदि तुम जाना ही चाहते हो तो मेरे कहने से रुकोगे भी कब ? लेकिन इतना नियम तो ले लो कि माँस-मदिरा का सेवन तुम कभी भी न करोगे और इनके सेवन करने वालों का साथ भी नहीं करोगे । '
मुनि अषाढ़ भूति ने यह नियम ले लिया और गुरुदेव को वन्दन करके नटकन्याओं के पास चले आये । गुरुदेव ने मन-ही-मन सोचा - इस छोटे से त्याग से भी महान् लाभ होगा, पुनः इसका उद्धार हो जायेगा ।
मुनि अषाढ़भूति ने नट के घर आकर अपने नियम की बात बताई और स्पष्ट शब्दों में कहा- 'तुम सब लोग यदि जीवन-भर के लिए मद्य - माँस का त्याग करो तो मैं तुम्हारे पास रहूँगा, अन्यथा नहीं रहूँगा ।' नट और उसके