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आँखें बहत प्रतापी थीं, पच्चीस-पचास लोग तो उन्हें देखकर इधर-उधर हो जाते थे। एक प्रकार का लि था, यों योगीपन कहा जा सकता था, ऐसे प्रभावशाली थे वे।
तेरह साल के अंबालाल घोड़ी पर बैठने गए तो घोड़ी ने उन्हें गिरा दिया। जब उन्होंने भाई को बताया, कि 'घोड़ी ने मुझे गिरा दिया। तब भाई ने कहा कि 'इतनी कीमती घोड़ी तो क्या वह तुझे यों ही गिरा देगी? तुझे बैठना नहीं आया होगा। इस बात पर से वे सोच में पड़ गए, ‘बात भी सही है कि मुझे बैठना नहीं आया! गलती मेरी ही है'।
वे सरलता से अपनी भूल स्वीकार कर लेते थे और वह सीख पूरी जिंदगी उनकी जागृति में रहती थी।
बड़े भाई बहुत ही कड़क स्वभाव वाले थे। एक बार घर पर जब मेहमान आए और भाभी को चाय बनाने को कहा। तो संयोगवश स्टोव नहीं जला और चाय बनाने में देरी हो गई। बड़े भाई चिढ़ गए। फिर तो गुस्से में आकर उन्होंने जलता हुआ स्टोव फेंक दिया और कप-प्लेट फोड़ दिए।
मुहल्ले में जैनों और पटेलों के घर पर जब शादी-ब्याह होते थे तो वे बड़े भाई को खाना खाने बुलाते थे। बड़े भाई का नियम था कि खुले सिर सब के साथ में खाना खाने नहीं बैठते थे। उन्हें खास तौर पर घर के अंदर बैठाया जाए तभी वे खाना खाने जाते थे। साथ-साथ अंबालाल जी को भी बैठाते थे। बड़े भाई के साथ उनका भी रौब जम जाता था।
लोग उनसे कह जाते थे कि, 'दोनों भाईयों के बच्चे क्यों नहीं हैं ?' लोग ऐसा कहते थे कि पूर्व जन्म के उनके ऋणानुबंध के हिसाब ऐसे हों, तभी ऐसा होता है।
इस प्रकार, बड़े भाई गरम दिमाग़ वाले थे फिर भी दिल के भोले थे, दयालु स्वभाव वाले, राजसी मन वाले। यदि कोई दुःखी होता तो वे उसकी सब प्रकार से हेल्प करते थे। उन्हें गुलामी और परवशता तो बिल्कुल भी पसंद नहीं थी।