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सृष्टिके ताने-बानेसे गुथे जंजालसे मुक्त होनेके लिए उनके प्राण छटपटाते रहते । कोई दूरागत पुकार उनके कानोंमें गूँजती रहती । अनागतका कोई आमंत्रण उन्हें अपनी ओर खींचता रहता । निरन्तर बढ़ती हुई बेचैनी औरं विह्वलताको देखकर उनकी धर्मपत्नी भी करुणासे विगलित होकर तड़प उठती । परन्तु तादृश स्थिति बिना, ऐसी गोपित वेदनाका कारण जान पाना सम्भव कहाँ ?
भीषण अतृप्ति और प्यास, कभी न भरनेवाला शून्य, कभी न बुझनेवाली आगके घेरेमें घिरते चले गये, आत्मवेदनाके निगूढ पारावारमे वे डूबते गये । उन्हें प्रत्येक सांसारिक कार्य विष-तुल्य लगने लगे ।
सत्यसे साक्षात्कारकी अभीप्सामें श्री सोगानीजीके जीवनका रूपान्तर होता रहा । भरे-पूरे संसारमें वे एकाकी और ऐकान्तिक होते चले गये । शान्तिकी प्राप्ति के लिए वे अनेक उपक्रम करते रहे। यहाँ तक कि किरायेके घरमें रहने पर भी छतके ऊपर, उन्होंने अपनी आर्थिक स्थिति तदनुकूल न होनेपर भी, अपने खर्चसे एक कोठरी भी बना ली; जहाँ उनका एकान्तवास हो सका । यही कोठरी उनकी शोध और साधनाका केन्द्र बन गई । शरीरसे लौकिकधर्मका पालन करते हुए भी उनकी अस्तित्वगत उपस्थिति भावनाके रहस्यलोकमें रहने लगी ।
* सत्पात्रता :
साधु-सन्तोंका समागम; जिनदेव दर्शन; जैन ग्रन्थोंका आलोडन करना श्री सोगानीजीकी दिनचर्याका अनिवार्य अंग बनता गया । वे जब तब अन्य धर्मग्रन्थोंका भी तुलनात्मक अध्ययन किया करते थे । उनकी स्वाध्यायरुचि इतनी बढ़ चली थी कि वे दुकान पर भी तनिक-सा अवकाश मिलते ही या ग्राहकोंको नौकरके हवाले कर, शास्त्र- स्वाध्यायमे खो जाते थे । चिंतन-मनन-मन्थनके धुंध भरे गलियारोंमे भटक भटक कर वे रोशनीकी तलाश करते रहे । अपनी अभीष्ट सिद्धि हेतु उन्होने अपने ही हाथोसे बड़े जतनसे तैयार की हुई सामग्रीसे, लम्बे समय तक, दत्तचित्तसे चार-चार
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