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द्रव्यदृष्टि-प्रकाश (भाग - १)
विषय - दृष्टिका विषय द्रव्य मै हूँ, इसका आगम आधार तपासकर आपने बताया, इससे बहुत आनन्द हुआ ।
श्री योगीन्द्रदेवके 'परमात्मप्रकाश' श्लोक न. ६८ पर श्री ब्रह्मदेवकी टीका, पं. दौलतरामजीके अनुवाद सहित, को शीघ्र देखूँगा । साथ ही श्री जयसेन आचार्यकी 'टीका प्रति' यदि यहाँ मिल गई तो उक्त गाथा सहित पूरी देखनेका विचार है । जो कि पहले मेरी देखी हुई नही है । अटक भावे सहजानन्दमे मग्न रहो, यह ही भावना है।
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ॐ
श्री सद्गुरुदेवाय नमः
मोक्षेच्छुक निहालचन्द्र
कलकत्ता
२७-१२-१९६३
आत्मार्थी
शुद्धात्म सत्कार ।
आपका पत्र यथा समय पर मिला था। कई प्रकारके प्रश्न लिखे, जिन सम्बन्धित योग्यतानुसार संक्षिप्त खुलासा लिखता हूँ :
१. स्वद्रव्यसे, परसे अथवा क्षणिक योग्यतासे ज्ञान*
सर्व समाधानोंका भण्डार त्रिकाली चैतन्यद्रव्य वर्तमानमें ही हूँ; इसमे दृष्टि अभेद होते ही, प्रश्नरूप विकल्पकी, विकल्पांशसे जुदी स्वआश्रित सहज जानन क्रिया होती है, वह क्रिया स्वयं ही समाधान रूप है । जिसमे प्रश्न लम्बानेका अभिप्राय नहीं रहता ।
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यथार्थ उक्त दृष्टि पश्चात् योग्यताका वास्तविक भाव समझमें आता है । योग्यता स्वयं सत् अहेतुक है; जिसको निश्चये न स्व द्रव्य कारण है न पर । यह अपरिणामी द्रव्यदृष्टि समय-समयकी योग्यतामें फेरफारकी बुद्धि नही रखती व योग्यता भी दृष्टिके अभेद विषयकी ओर समय-समये वृद्धिगत
इस विषयके स्पष्टीकरणमे अध्यात्म व द्रव्यनुयोग सबधित ग्यारह सिद्धांत समाहित हैं।