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द्रव्यदृष्टि-प्रकाश (भाग - ३) होती है । सुनते रहने और सोचते रहनेसे तो वस्तुकी प्राप्ति नहीं होती। [ स्वरूप ] ग्रहण करनेका [ - अपने अस्तित्वको रुचिपूर्वक वेदन करनेका ] ही अभ्यास शुरू होना चाहिए। [मुमुक्षुजीवको सामान्य भावनासे तत्त्वविचार चलता है । सोचना-विचारना तो बहिर्मुख भाव है, इसमे वस्तु परोक्ष रहती है, और ऐसेमे स्वयके महान् अस्तित्वकी जागृति नही होती । किन्तु स्वरूपकी अनन्य रुचिसे 'ज्ञानमात्र' के वेदनसे प्रत्यक्ष तौरसे अस्तित्व ग्रहणका प्रयास होना चाहिए - ऐसे प्रयाससे अतर्मुखता प्राप्त होती है । ] ४५४.
__ वस्तु तो शुद्धभक्तिका [ परिणामका ] भी निषेध करती है। [ अर्थात् - वस्तु शुद्धपर्यायसे भी निरपेक्ष है ] । शुद्धभक्ति, व्यवहारभक्तिका निषेध ( उपेक्षा) करती है । व्यवहारभक्ति, अन्य सब पदार्थोका निषेध ( उपेक्षा ) करती है । ४५५.
रुचि अपने विषयमे बाधक पदार्थोको फटा-फट हटा देती है, उनमे रुकती नही; ( सीधे ) अपने विषयको ही ग्रहण कर लेती है । ४५६.
जिसको जिसकी प्राप्ति करनी है उस विषयमे उसको सूक्ष्मता आ जाती है अर्थात् प्रयोजनके विषयमें बुद्धि अधिक सूक्ष्म हो जाती है। ४५७.
प्रश्न :- नज़रमे तो पर पदार्थ आते है, स्व वस्तु नज़रमे नही आती, तो क्या करना ?
उत्तर :-- जिस क्षेत्रमे नज़रका परिणमन हो रहा है, उसी आखे के आखे ( पूरे के पूरे ) क्षेत्रमे वस्तु पड़ी है । जहाँसे नज़र उठती है...वही वस्तु है । अतः नज़र जहाँसे उठती है...वही वस्तुको ढूँढ लो ! ४५८.
प्रश्न :- उपयोग स्वसन्मुख होता है तब जो [ परसे ] भिन्नता भासती है, वैसी [ भिन्नता ] विकल्पके कालमे भासती है क्या ?