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तत्त्वचर्चा
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[अज्ञानीके ] परलक्ष्यी उपयोगमे [ ज्ञानमे ] रागको भिन्न जाननेकी ताकत ही नहीं है । परलक्ष्यी उपयोगको तो अचेतन ही गिननेमे आता है। ४७२.
पहले तो असली [ निरपेक्ष ] बात नक्की कर लो, फिर अपेक्षित वातोका खतियान कर लो । एक ओर, परद्रव्यका चितन रागका कारण वतावे; दूसरी और, केवलीके द्रव्य-गुण-पर्यायका चितन मोहक्षयका कारण बतावे; - सो परद्रव्यका चितन रागका कारण है, यह तो 'सिद्धान्त' है;
और मोहक्षयका कारण तो 'निमित्तकी अपेक्षा'से बताया है। ऐसे सभी जगह 'निरपेक्ष' वात निश्चितकर, फिर 'अपेक्षित' वातको समझ लेना है। ४७३.
मृत्यु कब आनेवाली है, यह तो निश्चित [ जानकारीमे ] नही है, परन्तु आने की है सो तो निश्चित है; इसलिए हर क्षण तैयार रहना है । शरीरके टुकडे-टुकडे हो जाएँ; रोम-रोम पर धधकती सूईयाँ लगा दी जाएँ...फिर भी, 'अपने ध्रुव तत्त्व'मे इनका प्रवेश ही कहाँ है ? ४७४.
पहले ही से शरीरसे भिन्नताका जिसने [ प्रयोगात्मक ] अभ्यास किया है, वो ही मरण समय [ पुरुपार्थमे ] टिक सकता है । क्योकि जिसकी जो रुचि होती है, वही मरणके समय मुख्य हो जाती है । अतः जिसने पहलेसे ही भिन्नताका अभ्यास किया है, वो ही टिक सकेगा। ____ उत्कृष्ट पात्र होवे - जिसकी एक-आध भवमे मुक्ति होनेवाली हो, वही [ मरण-समय ] निर्विकल्प समाधि रख सकता है । उससे नीचे [कम योग्यता] वालेको विकल्प पूर्वक [आत्म-लक्ष्य सहित ] इसी तत्त्वकी दृढताका चितन चलता है। उससे नीचेवालेको देव-शास्त्र-गुरुकी भक्तिका विकल्प आता है । साधकको तो आकरी (तीव्र ) वेदना आदि हो, कुछ भी न चले, तो भी ध्रुव तत्त्वकी अधिकता तो छूटती ही नही । ४७५.