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तत्वचर्चा
उत्तर : - विकल्पके कालमे भी प्रत्यक्ष भिन्नताका अनुभव है । मगर उपयोगको क्यो मुख्य करते हो ? 'मै तो ध्रुवतत्त्व हूँ,' इसकी मुख्यता करनी चाहिए । श्रद्धा-ज्ञान, विकल्पके कालमे [ धारणाकी माफिक ] खाली पड़े हुए नही है, लेकिन परिणमनरूप है । ४५९.
वस्तुको ग्रहण करना, पकड़ना, सन्मुख वलना ( ढलना) - यह सब कथनमे आता है । असलमे तो त्रिकाली वस्तुमे अहम्पन आ जाना, उसीको - ग्रहण किया, सन्मुख हुआ, आश्रय लिया, पकड़ा, - ऐसा कहते है । असलमे परिणाम भी सत् है, उसको अन्यका अवलम्बन नही है। ४६०.
___ हर क्षण मृत्युके लिए तो तैयार ही रहना; कभी भी हो और कैसी भी वेदना हो - सातवी नरक जैसी भी वेदना हो, फिर भी क्या ? [ मृत्यु तथा मृत्युकी वेदना - दोनोसे 'मै' अधिक हूँ, ऐसा मे मेरे स्वसवेदनसे अनुभव करता हूँ 1 ] ४६१.
विकल्पात्मक निर्णय छूट कर स्वआश्रित ज्ञान उघड़ता है । जो ज्ञान सुखको देता है, वही ज्ञान है । ४६२.
व्यवहार, व्यवहारकी अपेक्षासे सत्य ही है । ४६३.
जिस चीज़को पकड़नी है उसको पहले पूरी समझ लेनी [ यथार्थ निर्णय कर लेना चाहिए । ४६४.
परसन्मुख उपयोग होता है, वह आत्माका उपयोग ही नही है, [ वह तो ] अनुपयोग है । आत्माका उपयोग तो परमे जाता ही नहीं; और परमे जावे वह [ आत्माका ] उपयोग ही नही । ४६५.