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तत्त्वचर्चा
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शुद्धि भरी है, अत उसके निर्णयमे भी अर्थात् निर्णयके गर्भमे भी पूर्ण शुद्धिका सत्त्व हे । स्वरूपनिर्णयके कालमे नियमसे स्वरूपअस्तित्वका ग्रहण होता है और स्वभावके सस्कार ऐसे पड़ते है कि जिसके फलस्वरूप सिद्धपद प्रगट होगा ही । ऐस दृष्टिके विषयभूत स्वस्वरूपका निर्णय होते ही सभी अवस्थाओके प्रति उपेक्षा सहज ही हो जाती है । ] ४८०.
यह ध्रुवतत्त्व किसीको नमता ( झुकता ) ही नही है । खुदकी सिद्धपर्यायको भी नही नमता । ४८१.
मुनिके पास कोई शास्त्र हो और दूसरा कोई उस शास्त्रको माँगे, तो मुनि फ़ौरन दे देते हैं, क्योकि वे खुद ही तो पराश्रयभाव छोड़ना चाहते है, इसीसे माँगे तो सहज दे देते है । [ मुनिदशामे उपकरणके प्रति भी ममत्व नही होता है । ] ४८२.
ज्ञानीको भगवानकी रागवाली भक्तिका प्रेम होता है, लेकिन इधरकी [ आत्माकी ] भक्तिमे जैसा प्रेम है वैसा वहाँ नही होता । ४८३.
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[ स्वयके बारेमे ] मै तो विकल्पोसे एकदम थक गया था; तभी [ जैस कोई ] ऊपरसे एकदम नीचे पटके, वैसे पर्यायसे छूटकर [ जोर पूर्वक चेष्टासे ] अन्दरमे [ निर्विकल्प अनुभवमे ] उतर गया । ४८४. [ अगत ]
[ शुरू-शुरूमे धार्मिक ] पुस्तकोका बहुत पठन था, सैकड़ों पुस्तके पढ़ ली थी, मगर दृष्टि नही मिली। पू. गुरुदेवश्रीसे दृष्टि मिली, पीछे पुस्तक पढ़नेका रस कम हो गया । ४८५. [ अगत ]
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जैसे संयोगकी इच्छावालेको इच्छानुसार संयोगका मिलना पुण्यका