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तत्त्वचर्चा सब शास्त्रोका एक ही सार है- 'त्रिकालीस्वभावमे अपनापन जोड़ देना है' । ५३३.
विचार आदि तो पर्यायका स्वभाव होनेसे चलता ही रहता है, परन्तु ज़ोर ध्येय स्वभावकी ओर रहता है तो परिणति [ अन्तरमे ] ढल जाती है । ५३४.
इसका [ ध्रुव-दृष्टिका ] बल आए बिना, [ जीव ] दूसरी जगह अटकेगा ही। ५३५.
निश्चयमहाराजजीको नही जाना तो इन महाराजजी [ पू गुरुदेवश्री ] को भी विपरीत ही जाना । [ - यथार्थरूपमे नही जाना । ] [ निश्चय आत्मस्वरूपका अज्ञान होनेपर देव-शास्त्र-गुरुका भी यथार्थ स्वरूप जाननेमे नही आता अथवा प्राय विपरीत जानना होता है । ] ५३६.
परिणाम( -प्रति )के रसको यमका दूत जानो । [ किसी भी प्रकारके परिणाम पर रसपूर्वक वजन जाता है तो उसमे बहुत नुकसान होता है अर्थात् स्वभावप्रतिका जोर नही आनेका कारण बनता है । ससारदशामे रागरस ही रहता है, यही अनत ससारका कारण है । ] ५३७.
विचार करना - निर्विचार होनेके लिए। मिलना - फिर नही मिलनेके लिए । ५३८.
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सच्चे देव, शास्त्र, गुरु भी 'स्वभाव'के अनायतन है । ५३९.
परिणाम [ 'मेरा' ] अवलम्बन लेता है, 'मै नहीं' । ५४०.
प्रौढ विवेक : 'मै निष्क्रिय चिन्मात्र वस्तु हूँ' । ५४१.