Book Title: Dravyadrushti Prakash
Author(s): Vitrag Sat Sahitya Prasarak Trust
Publisher: Vitrag Sat Sahitya Trust Bhavnagar

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Page 247
________________ तत्त्वचर्चा १८१ * शास्त्रमे ज्ञान करनेका कहा तो कितने ही लोग चितनमे ही रुक गये; और पुरुषार्थ करनेका कहा तो विकल्पमे ही रुक गये । [ शास्त्रकी उपदेशात्मक वचनपद्धतिसे चितन और विकल्प करनेकी कृत्रिम कार्यपद्धति बन जाना संभव है अत यहाॅ ऐसे विपर्यासके प्रति ध्यान खीचा है कि स्वरूपलक्ष्यसे चितन आदि सहज चले, वही यथार्थ है । अन्यथा कृत्रिमता करनेसे तो कृत्रिमतामे ही रुकना होता है । ] ५५७. ※ पहले अपनी [ निश्चय ] प्रभावना करके .... • अपना सुख पीनेमे मग्न रहो... बादमे जैसा जैसा योग होता है वैसा-वैसा विकल्प आता रहता है । ५५८. * 'अपने' तो निर्विकल्पता भी करनी नही है; ध्रुवस्थलमे बैठने से निर्विकल्पता भी सहज होती है । पहले अभिप्राय ठीक करना चाहिए, फिर परिणाम भी ठीक होने लगते है । ५५९. * निष्क्रियभाव कहनेसे जीवको पुरुषार्थ हीनता लगती है । अरे भाई ! वह [ स्वभाव ] तो पुरुषार्थकी खान है; और जो मुक्ति होती है उसकी भी उसको दरकार [ अपेक्षा ] नही है । [ निष्क्रियस्वभावमे आते ही मुक्तिपर्यन्तकी सर्व पर्यायोकी अपेक्षा ही छूट जाती है, कृतकृत्यता अनुभव गोचर होती है - ऐसा भाव स्वय पुरुषार्थ स्वरूप है, अत उसे पुरुषार्थविषयक असमाधान नही रहता । ] ५६०. * प्रश्न :- [ यह सब ] स्वभावको मज़बूत करनेकी बात है ? उत्तर :- स्वभाव तो मज़बूत ही है, उसमे बैठ जाओ । ५६१. * आत्मा तो समुद्र है । जैसे समुद्रमे लहरे उठती है और अपनेमे ही विलीन हो जाती है; समुद्रको लहरोकी क्या दरकार ? वैसे ही इधर

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