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तत्त्वचर्चा
१८३ वेदनासमुद्घा : जीवके प्रदेश शरीरसे बाहर निकल जाते है, और शरीरके बाहर वेदन आता है; तो कोई जीव, इस परसे भी शरीरसे [आत्माके ] भिन्नपनेके विचारमे उतरकर काम कर सकता है। ५६८.
'परिणाममेसे अहम्पना हटना और त्रिकाल स्वभावमे अहम्पना करना,' वह शुद्धजीवका [ परिणामस्वभाव ] स्वरूप है । ५६९.
स्वाध्याय आदिका विकल्पवाला ज्ञान है सो तो आकुलताके साथ अभेद है; और सहजज्ञान त्रिकालीस्वभावके साथ अभेद है । [ जिसमे निराकुलता है । ] ५७०.
'मै त्रिकाली तत्त्व हूँ,' इसमे अहम्पना करना - वही बारह अंग-चौदह पूर्वका सार है; अंगपूर्वमे यही कहना है । ५७१.
. 'सिद्ध भगवान खिसकते ही नही' इसका अर्थ ही ऐसा है कि वे परिपूर्ण तृप्त-तृप्त हो गये है, इसीलिए खिसकते ही नही है । [ - ऐसा परिणमन होनका ही द्रव्यका स्वभाव है । ] ५७२.
अनुभव होना तो आसान है । लेकिन विशेष उघाड़शक्ति होना और न्याय आदि [ विचारना ] श्रमवाला है । अपनेको तो गुरुदेवश्रीने ही सब दिया है । ५७३.
सम्यग्दृष्टिको एक विकल्प भी फॉसी-सा लगता है - विकसित स्वभावको [ विभावमात्र ] फॉसी लगती है । ५७४.
[जिसकी कर्ताबुद्धि मिट गई है, ऐसे ज्ञानीके अभिप्रायमे ] केवलज्ञान भी करना नही है, हो जाता है । तब फिर क्षयोपशम ऐसे करूँ...ऐसे करूँ - वह तो कर्तृत्व ही है। [ स्वरूपको भूलने पर ऐसा विपर्यास होता