Book Title: Dravyadrushti Prakash
Author(s): Vitrag Sat Sahitya Prasarak Trust
Publisher: Vitrag Sat Sahitya Trust Bhavnagar

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Page 259
________________ १९३ तत्त्वचर्चा ___ 'म परिणामसे शून्य हूँ'- ऐसा [ रुचिपूर्वक ] ज़ोर आना चाहिए । ६२५. द्रव्यलिगीको मंद कषायकी मुख्यता है और द्रव्यकी गौणता है । [ व्यवहाराभासमे सर्वत्र ऐसा होता है । ] ६२६. 'मेरी' भूमि वर्तमानमे इतनी निष्कम्प और नकर ( ठोस ) है कि जिससे 'मे' वर्तमानमे ही निर्भय हूँ, निरावलम्बी हूँ, परिपूर्ण हूँ, निष्क्रिय हूँ, सुखस्वरूप हूँ, कृतकृत्य हूँ, त्रिकाल एकरूप हूँ, अचल हूँ । ६२७. [ स्वयकी प्रसिद्धिके बारेमे पूछा गया तब कहा कि ] कोई जाने न जाने, इसमे आत्माको कोई फायदा नही है । अनंत सिद्ध हो गए है, (लेकिन) आजकल कोई उनके नाम तक भी नहीं जानता है । असंख्य सम्यग्दृष्टि [ तिर्यच ] अभी ढाई द्वीपके वाहर मौजूद है, उन्हे कौन जानता है ? ___आप किसीके लिए बोझा न उठाने । मै अपनी बात अपने मुखसे नही कह पाऊँगा, और कोई वात बना करके [ कि, ऐसा कहना है ] ( वॉ) जाना, ऐसा मुझसे नही हो सकता । [ धर्मात्माके समागममे पूर्वयोजित वात कहनेसे कृत्रिमता और असरलताका अपराध उत्पन्न होता है, जो कि मुमुक्षुओको करने योग्य नही है । ] ६२८. [ अगत ] एक पलड़ेमे आत्मा, और दूसरे पलड़ेमे तीन काल-तीन लोक; फिर भी आत्मावाला पलड़ा (भारसे) बैठ जाता है, और दूसरा पलड़ा उलर जाता है । ६२९. ___द्रव्यलिगी मुनिने वीर्य बहुत उलटा लगाया है। वह जितनी ज़ोरसे उलटा पड़ा है, उससे अधिक वीर्य सम्यक् होनेमे लगाना पड़ेगा, तभी

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