Book Title: Dravyadrushti Prakash
Author(s): Vitrag Sat Sahitya Prasarak Trust
Publisher: Vitrag Sat Sahitya Trust Bhavnagar

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Page 261
________________ 195 तत्वचर्चा है / मूल बात इधर [ अतर ] से है; वाटमे बाहरके निमित्तो पर उपचार किया जाता है / 636. ___ 'मै तो अभी ही सिद्ध हूँ', चौदहवाँ गुणस्थान होगा और बादमे सिद्धालयमे जाना होगा, क्षेत्रांतर वगैरह होगा, लेकिन यह सब कार्य पर्यायमे होगा / पर्यायका कार्य पर्यायमे होता है, 'मेरे' मे नही / 'मैं' तो अभी ही सिद्धालयमे बैठा हूँ। कभी कही आया भी नही, गया भी नही / 637. प्रश्न :- पुरुषार्थ कैसे करना? पुरुषार्थ है। प्रश्न *~ दृष्टि तो फेरना है न ? उत्तर :- 'मै खुद ही दृष्टा हूँ' - इस भावमे दृष्टि नहीं फेरना है [वह तो स्वय फिर जाती है ]; वर्तमानमे ही कृतकृत्य हूँ, इसमे कुछ करना नही है / 638. प्रश्न :- परिणति अंतरमे अभेद रहती है, इसलिए आप साधक उत्तर :- पर्यायकी अपेक्षासे मुझे साधक कहो तो कहो / वैसे 'मैं' तो न साधक हूँ, न बाधक हूँ। [ 'भै' तो जो हूँ सो हूँ 1 ] 639. यह (भव) तो मुसाफ़िरी है। अब तो आख़िरी मुसाफ़िरी है / 640. गुरुदेवश्रीके लिए मेरे हृदयमे क्या [ महिमा ] है ? –सो चीर कर कैसे बतलाऊँ ? ... वस ! यह तो मेरा ज्ञान ही जानता है / 641.

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