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किसीके साथ नही । [ 'मै असग तत्त्व हॅू' ।] ६१९.
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द्रव्यदृष्टि- प्रकाश ( भाग - ३)
प्रश्न :- इस कालमे सत्समागम लाभकारी है ?
उत्तर :- निश्चयस्वरूप अपनी आत्माका समागम करना, वही सत्समागम है और यही लाभकारी है । व्यवहारसे देव - शास्त्र - गुरु तथा धर्मात्माका संग सत्समागम है । ६२०.
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'मै' ध्येय स्वरूप हॅू । परिणाम 'मेरा' ध्यान करता है । ६२१.
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जिसमे थकावट आये, उसे हेय जाने । शुभाशुभमे थकावट आती है; शुद्धभावमे थकावट नही आती ।
पर्यायको पर्यायके स्थानमें रहने दो ! ६२२.
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पोपट भूँगलीको पकड़ने पर औधा हो जाता है, गिर जानेके भयसे ( वह ) भूँगलीको छोड़ता नही है; यदि वह भूँगलीको छोड़ दे तो उड़ जाए, क्योकि उड़ना तो उसका सहज स्वभाव है । [ परन्तु अज्ञानवश ] वह अपनी स्वाभाविकशक्तिको भूला हुआ है । वैसे ही अज्ञानी अपनी शक्तिको भूल कर परिणामको पकड़े हुए है। [ अज्ञानवश स्वशक्तिको भूल जानेसे राग और रागके विषयभूत पदार्थोके अवलम्बन / आधारसे अपना जीवन टिकता है, ऐसा परिणमन चलता है । जब कि स्वशक्तिके भानमे ऐसी दीनता
सहज ही छूट जाती है, इसीलिए ज्ञानदशामे किसी भी पदार्थका त्याग सहज
हो सकता है, जिसमे न आकुलता हाती है और न ही भय रहता है ।] ६२३.
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सम्यग्दृष्टिकी रागके प्रति पीठ है, ( लेकिन ) मुख नही ।
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'मैं' तो सदा अंतर्मुख हूँ, 'मेरा' विकल्पके साथ भी सम्बन्ध नही
है तो दूसरोकी तो क्या बात ? आत्मा ही निज वैभव है । ६२४.
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