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द्रव्यदृष्टि-प्रकाश (भाग - ३)
यथार्थ निश्चयमे सुख प्रकट होता है । ६०४.
जैसे एक द्रव्य अन्य द्रव्यका कुछ नही करता है, वैसे एक सत् अन्य सत्का कुछ नहीं करता । त्रिकालीसत् क्षणिकसत्को नही करता । क्षणिकसत् त्रिकालीसत्का कुछ नही करता । ६०५.
त्रिकालीमे विकार-अविकार कुछ नही है । [ वह तो जैसा है वैसा है । ] ६०६
प्रमाणसे द्रव्य पर्यायका कर्ता है । निश्चयसे [ त्रिकाली ] द्रव्य पर्यायका कर्ता नही है । ६०७.
'वर्तमानमे ही अक्रिय-अपरिणामी हूँ,' अर्थात् कोई क्रिया करनेका अभिप्राय नही है । कुछ करूँ.. क मे, स्वयं परिणमन करते परिणामको करनेका ही अभिप्राय रहता है [ जो मिथ्या है ] । ६०८.
निरावलम्बी तत्त्वमे बैठ जाना है। वर्तमानमे ही परिपूर्ण हूँ तो फिर करना- क्या ? ज्ञान करना ! - वो तो सहज ही है; उसका भी बोझा उठानेकी जरूरत नही है । ६०९.
विकल्प, स्वका या परका- उनकी जात एक ही है - क्षणिक है। 'मैं' त्रिकाली निर्विकल्प हूँ, 'मेरे' मे विकल्पकी नास्ति है । ६१०.
ज्ञान बढ़ानेकी व कषाय घटानेकी ज़रूरत नही है, यो तो केवलज्ञान प्रकट करनेकी भी ज़रूरत नहीं है । 'परिणाम पर न खैचावो' सहज स्वभाव रह जाएगा । ६११.