Book Title: Dravyadrushti Prakash
Author(s): Vitrag Sat Sahitya Prasarak Trust
Publisher: Vitrag Sat Sahitya Trust Bhavnagar

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Page 254
________________ द्रव्यदृष्टि- प्रकाश (भाग-३) 'सारा जगत् ज्ञानका ज्ञेय है', 'अनुकूलता - प्रतिकूलता कुछ नही है' इस अभिप्रायमे दृष्टि अभेद होनी चाहिए । दृष्टिमे मचक नही आनी चाहिए | अभिप्रायमे परसे लाभ - नुकसानकी मान्यता क्यो ? अभिप्रायमे इच्छा व दीनता नही होनी चाहिए । [ अभिप्राय और दृष्टि साथ वर्तते है और तदनुसार ही परिणमनका सचरण / विकास होता है, ऐसा सिद्धात है । ] ५९३. १८८ * 'मै त्रिकाली अपरिणामी हूँ', परिणाम मात्र गौण है, वर्तमानमे ही ऐसा निश्चय होना चाहिए । ध्रुवस्वभाव सदा प्रसिद्ध है; उत्पाद-व्ययके कामे जुदा प्रकट है । [ स्वभावकी ] दृष्टि प्रतिसमय पर्यायको गौण करती है । ५९४. * प्रश्न :- जीवका कर्तव्य क्या ? उत्तर :- कर्तव्य पर्यायमे है । परमार्थसे कोई कर्तव्य नही । प्रमाणज्ञानका प्रयोजन तो 'निश्चय' को प्रकाशित करना है | जीवको कर्तव्यकी मुख्यताके नामपर भी कर्ताबुद्धि दृढ हो जाने की सभावना रहती है । वस्तुत सभी प्रकारके दोषोसे छूटने / बचने तथा सर्व श्रेयका मूल निश्चयपरमार्थस्वरूपका ‘ज्ञान' है अत मूल प्रयोजनभूत विषय 'मूलस्वरूप' ही है, जिसके श्रद्धान - ज्ञानसे पर्यायविषयक उत्तर प्रयोजनकी सिद्धि स्वय हो जाती है । ] ५९५. ※ 'मै' तो प्रतिमासमान अपरिणामी हूँ । 'मेरे' मे पालथी मारकर बैठ जाता हूँ । दर्पणके दलकी तरह निष्क्रिय हूँ । परिणाम जो होने लायक है सो होता है । 'मै' तो पर्यायनिरपेक्ष द्रव्य हॅू - वही निष्क्रियता है । ५९६. * पर्यायको उसके स्वकालमे रहने दो, वह उस कालका सत् है; उसमे

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