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तत्त्वचर्चा
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उपयोग मत रोकना । ५९७.
द्रव्य, पर्यायका आलिगन नही करता । पर्याय, द्रव्यका आलिगन नही करती; कथंचित् व्यवहारसे आलिगन करती है । ५९८.
हर समय द्रव्यस्वभावकी अधिकता रहनी चाहिए । जैसे तिनकेकी आडमे डूंगर (पर्वत) नही दिखता है, वैसे ही दृष्टि परिणाम पर रुकनेसे परिणामी ढक जाता है । ५९९.
[ सक्षेपमे अध्यात्मदृष्टिसे ] चार अनुयोग :करणानुयोग : विकार और विकारके फल । द्रव्यानुयोग : स्वभाव और स्वभावका फल । चरणानुयोग : चारित्रकी स्थिरता । कथानुयोग : उक्त सभीकी कथा । ६००.
'मै निष्क्रिय त्रिकाली हूँ' - इस चश्मेको लगाकर देखनेसे सभी गुण अपना कार्य करते है, इसमे सहज ज्ञान और पुरुषार्थ आ जाता है।
[महज स्वरूपमे ] साधक-बाधक कोई नहीं है, यह चश्मा लगानेसे अर्थात् ध्रुवकी मुख्यतामे सब यथार्थ दिखता है । साधक-बाधकभाव पर्यायमे है, 'मै तो ध्रुव हूँ' । ६०१.
निश्चयाभास होनेका भय और प्रमाणज्ञानका लोभ रहनेसे सत्यमार्ग दिखाई नही देता । ६०२.
क्षणिकभाव व्यक्त है उसको गौण करना; और त्रिकालीभाव अव्यक्त है उसको मुख्य करना । ६०३.