Book Title: Dravyadrushti Prakash
Author(s): Vitrag Sat Sahitya Prasarak Trust
Publisher: Vitrag Sat Sahitya Trust Bhavnagar

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Page 253
________________ १८७ तत्त्वचर्चा आचार्योने ऐसा माना है कि 'जीवका मोक्ष नहीं होता, परन्तु समझमे आता है' । वह इस तरह कि जीव शुद्ध स्वरूपवाला है, उसे वध ही नही हुआ तो फिर मुक्त होना कैसा ? परन्तु उसने यह मान रखा है, 'मै बँधा हुआ हूँ', यह मान्यता विचार द्वारा समझमे आती है कि मुझे बधन नही है, मात्र मान लिया था । वह मान्यता शुद्ध स्वरूप समझमे आनेसे नही रहती, अर्थात् 'मोक्ष समझमे आ जाता है। यह वात 'शुद्धनय' अथवा 'निश्चयनय' की है । पर्यायार्थिकनयवाले इस नयको पकडकर आचरण करे तो उन्हे भटक-भटक कर मरना है | ] [ एकान्त पर्यायार्थिकनयके विषयभूत पर्यायसत्ताका जिसने आश्रय लिया है उसे ऐसी अवस्थामे मात्र कल्पनासे स्वयको 'मुक्त स्वरूप' मान लेनेसे गृहीत मिथ्यात्व अर्थात् तीव्र मिथ्यात्व हो जाता है जो ससार परिभ्रमणका मूल कारण है । ] ५८८. दर्पणमे समय-समय पर आकार [ प्रतिबिब जैसा ] होता रहता है, तो भी दर्पणका दल ज्यो का त्यो रहता है। ऐसे ही, 'स्वभाव' दर्पणके दल जैसा है; वह स्वयंके साथ तादात्म्य है, आकारके साथ नही । त्रिकालीमे वर्तमान परिणमनका अभाव है। ५८९. (जीव ) मुक्तिको चाहता है, लेकिन उसके अभिप्रायमे कर्तापना पड़ा हो तो मुक्ति कैसे हो ? 'मै पूर्ण हूँ' ऐसा निश्चय होनेपर, कर्तापना नही रहता । ५९०. 'स्वभाव' सावधान स्वरूप है । पर्यायमे सावधानी होनेपर स्वभाव पकड़नेमे नही आता । ५९१. [ मूलत ] 'वर्तमानमे ही पूर्ण हूँ', [पर्यायमे भी ] प्रयोजन सुखका है, ज्ञानका नही । ५९२.

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