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तत्त्वचर्चा
१९१ 'मै' स्थिर हूँ' - ऐसा निर्णय करने पर स्थिरता आती है, टिकती है, बढ़ती है, और सुख होता है । 'मैं' अस्थिर हूँ'-ऐसे भावमे सुख नही मिलता, दुःख होता है। ६१२.
[ ज्ञानीके ] अभिप्रायमे, परिणाम-गति आदि गौण हो जाती है । उनकी मरणके समय क्षेत्रांतर पर नही लेकिन परिपूर्ण [ स्व ] पर दृष्टि रहती है । ६१३.
'प्रति समयका परिणमन' [ -व्यवहार ] उस कालमे मात्र जाना हुआ ही प्रयोजनवान है - दस ! इतनी ही मर्यादा है । ६१४.
वस्तुस्वरूप तो सहजका धंधा है, वाद-विवाद करे सो अंधा है । [ वादविवाद करनेवाला अज्ञानी सहजस्वरूपको नही देखता और न ही वह परिणामकी सहजताको समझता है । असलमे दूसरोकी श्रद्धा/अभिप्राय बदलनेके आग्रहमे विवाद उत्पन्न होते है । और साथ ही विवाद करनेवालेको स्वयके क्षयोपशमका अहभाव तीव्र हो जाता है। ] ६१५.
जो क्षणिकसत्को नही स्वीकारता, वह त्रिकालीसत्को कैसे स्वीकारेगा ? ६१६.
एक ओर त्रिकालीका पलड़ा और दूसरी ओर क्षणिकका पलड़ा; -जैसे एक ओर माल, दूसरी ओर बारदान; महत्ता मालकी है, बारदानकी नही । ६१७.
गतिमे, व्यवहारसे क्षेत्रांतर होता है; निश्चयसे अपना क्षेत्र कभी नही छूटता । ६१८.
ज्ञानकी पर्याय ज्ञेयके साथ सम्बन्ध रखती है । ज्ञायकका सम्बन्ध