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________________ १९२ किसीके साथ नही । [ 'मै असग तत्त्व हॅू' ।] ६१९. 柒 द्रव्यदृष्टि- प्रकाश ( भाग - ३) प्रश्न :- इस कालमे सत्समागम लाभकारी है ? उत्तर :- निश्चयस्वरूप अपनी आत्माका समागम करना, वही सत्समागम है और यही लाभकारी है । व्यवहारसे देव - शास्त्र - गुरु तथा धर्मात्माका संग सत्समागम है । ६२०. 柒 'मै' ध्येय स्वरूप हॅू । परिणाम 'मेरा' ध्यान करता है । ६२१. * जिसमे थकावट आये, उसे हेय जाने । शुभाशुभमे थकावट आती है; शुद्धभावमे थकावट नही आती । पर्यायको पर्यायके स्थानमें रहने दो ! ६२२. * पोपट भूँगलीको पकड़ने पर औधा हो जाता है, गिर जानेके भयसे ( वह ) भूँगलीको छोड़ता नही है; यदि वह भूँगलीको छोड़ दे तो उड़ जाए, क्योकि उड़ना तो उसका सहज स्वभाव है । [ परन्तु अज्ञानवश ] वह अपनी स्वाभाविकशक्तिको भूला हुआ है । वैसे ही अज्ञानी अपनी शक्तिको भूल कर परिणामको पकड़े हुए है। [ अज्ञानवश स्वशक्तिको भूल जानेसे राग और रागके विषयभूत पदार्थोके अवलम्बन / आधारसे अपना जीवन टिकता है, ऐसा परिणमन चलता है । जब कि स्वशक्तिके भानमे ऐसी दीनता सहज ही छूट जाती है, इसीलिए ज्ञानदशामे किसी भी पदार्थका त्याग सहज हो सकता है, जिसमे न आकुलता हाती है और न ही भय रहता है ।] ६२३. 米 सम्यग्दृष्टिकी रागके प्रति पीठ है, ( लेकिन ) मुख नही । · 'मैं' तो सदा अंतर्मुख हूँ, 'मेरा' विकल्पके साथ भी सम्बन्ध नही है तो दूसरोकी तो क्या बात ? आत्मा ही निज वैभव है । ६२४. *
SR No.010641
Book TitleDravyadrushti Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVitrag Sat Sahitya Prasarak Trust
PublisherVitrag Sat Sahitya Trust Bhavnagar
Publication Year
Total Pages261
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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