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द्रव्यदृष्टि-प्रकाश (भाग - ३) परिणाम उठते है और समा जाते है; मुझ [ ध्रुव स्वभाव ] समुद्रको इनकी क्या दरकार ? ५६२.
उपयोग भगवानकी ओर जावे तो भी जो [ हम तो उसे यमका दूत देखते है; तो ( उसे ) फिर अन्य कोई कहे कि – 'मेरेसे राग करो' - तो वह कैसे बन सकता है ? ५६३. [ अगत ]
नित्य वस्तुका ही भरोसा ठीक करने योग्य है । ५६४.
अज्ञानीको ऐसा रहता है कि – मै कषायको मंद करते... करते अभाव कर दूंगा; लेकिन ऐसे तो कषायका अभाव होता ही नही । - "स्वभावके बल बिना कषाय नही टलती ।" मै कषायको मंद करता जाऊँगा; सहनशक्ति बढ़ाता जाऊँगा तो कषायका अभाव हो जाएगा;
और ज्ञानमे जो परलक्ष्यी उघाड़ है वो ही बढ़ते-बढ़ते केवलज्ञान हो जाएगा - ऐसा अज्ञानी मानता है । ५६५.
[कितने ही लोग ] समझे बिना, द्रव्यमे पर्याय नही है... नही है - ऐसा ले लेते है । लेकिन 'पर्याय नहीं है, ऐसा कौन कहता है !! दृष्टिका विषयभूत – 'अपरिणामी' – पर्यायसे अलग है, उसमे पर्यायका अभाव है, उसमे पर्याय नही है - ऐसा कहते है । [ 'द्रव्य' शब्दका प्रयोग दो प्रकारसे होता है (१) प्रमाणके विषयभूत पदार्थको द्रव्य कहते है । (२) निश्चयनयके विषयभूत अपरिणामी द्रव्यस्वभावको भी द्रव्य कहते है । पहलेमे पर्यायका सद्भाव है तथा दूसरेमे असद्भाव है । अतएव जहाँ जो प्रकरण हो वहाँ तदनुरूप अर्थघटन करना चाहिए । ] ५६६.
'अपरिणामी' एक समयके परिणाममे आ जावे तो 'अपरिणामी' ख़त्म हो जाए । ५६७.