Book Title: Dravyadrushti Prakash
Author(s): Vitrag Sat Sahitya Prasarak Trust
Publisher: Vitrag Sat Sahitya Trust Bhavnagar

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Page 246
________________ १८० द्रव्यदृष्टि-प्रकाश (भाग -३) _ 'दृष्टि' परिणामपर रखी है तो [ उसका ] मुख द्रव्यकी ओर बदलना है; यह मुख भी परिणाम ही बदलता है; 'मेरेमे' [ ध्रुव सामान्यमे ] तो मुख भी कहाँ बदलना है ? 'मै तो जहाँ हूँ वहाँ ही हूँ', बदलना-फदलना कुछ 'मेरे' मे नही है। [ 'मै तो ध्रुव हूँ' ऐसे श्रद्धाके परिणमनमे, परिणामका मुख स्वय पलटकर आत्मोन्मुखी हो जाता है । ] ५५२. प्रश्न :- पर्यायका विवेक तो चाहिए न ? उत्तर :- जैसे करोड़पति, भिखारीको अधिकता नही देता [भिखारीके सामने दीनता नही करता] ऐसे पर्यायकी जितनी मर्यादा है उसको ज्ञान जान लेता है । पर्यायको अधिकता देने जाएगा तो प्रयोजन ही अन्यथा हो जाएगा । [ यही विवेक है । ] ५५३. बारह अंगका सार, 'निष्क्रिय चैतन्य 'दी मै हूँ' - ऐसा निर्णय करना है । 'मै' तो निष्क्रिय हूँ कुछ करना ही नही है; 'मै' कुछ कर सकता ही नही; 'मेरे'मे कुछ करनेकी शक्ति ही नही; 'मैं' वर्तमानमे ही परिपूर्ण हूँ, [ इसमे ] करना ही क्या है ? – ऐसा यथार्थ निर्णय हुआ तो मुक्ति हो गई । ५५४. विकल्प सहज होता है; निर्विकल्पता भी सहज होती है; और 'मैं' भी सहज हूँ। [ - ऐसा 'ज्ञान' ज्ञानदशामे रहता है । परन्तु अज्ञानदशामे विकल्पके कर्तृत्वपूर्वक विकल्प होता है उसमे विकल्पके स्वकाल और सहजताका अस्वीकार हो जाता है। ] ५५५. __ 'आत्मधर्म' मिला, उसमेसे यह पढ़ते ही कि, "एक ही आवश्यक है," चोट लगी! - अरे यह आठ द्रव्यसे पूजा करना ! छ आवश्यक ! - यह तो सभी बोझा लगता है; और इसमे [ एक आवश्यकमे ] तो बोझा घट जाता है । ५५६.

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