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द्रव्यदृष्टि-प्रकाश (भाग - ३)
कई लोग संसारकी दुकानदारी छोड़, शास्त्रकी दुकानदारीमे फँस गए । ५४२.
यहाँ तो अनुभूतिसे ही शुरुआत होती है। अनुभव हुए बिना पर्यायसे भिन्नता होती ही नही [ - पर्यायबुद्धि नही छूटती ] । ५४३.
गुरुदेवश्रीके उपदेशमे इतना खुलासा है कि - उस नीवसे धर्म पंचमकाल तक टिकेगा - ऐसा दिखता है । ५४४.
कार्यसे [पर्यायसे | पर्यायको मुख्य रखकर ] कारणको [ त्रिकाली द्रव्यको ] देखते हो. इससे तो मुझे ऐसी चोट लगती है कि यह क्या ! - ऐसी दृष्टिमे तो त्रिकालीसे जुदापना ही रहता है, तो फिर त्रिकालीमे एकता कैसे होगी?
वर्तमान पर्यायमे तो 'मै-पना' [पर्यायबुद्धि] स्थापित है और त्रिकाली [ स्वरूप ] की ओर जाना चाहते हो !! लेकिन पर्यायमे 'मै-पना' छूटे बिना, त्रिकालीमे 'मै-पना' कैसे होगा ? ५४५.
प्रश्न :- तिर्यचको तो अनुभवका सुख ठीक और रागका दुःख वह अठीक, ऐसा रहता है; उसमे 'त्रिकाली ही मै हूँ' ऐसा कैसे भासता होगा ?
उत्तर :- त्रिकालीमे आए बिना [ 'त्रिकाली ही मै हूँ' ऐसे अनुभव बिना ] सुख होता ही नही, तो उसमे त्रिकाली स्वभावका आश्रय आ गया । पर्याय बदलती है तो भी 'मैं' नही बदलता - ऐसा भासता है । ५४६.
वर्तमान अंशमे ही सब रमत ( करतब ) है - वह अंतरमे