Book Title: Dravyadrushti Prakash
Author(s): Vitrag Sat Sahitya Prasarak Trust
Publisher: Vitrag Sat Sahitya Trust Bhavnagar

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Page 250
________________ १८४ द्रव्यदृष्टि-प्रकाश (भाग - ३) है । ] ५७५. [ अध्यात्मकी ] ऐसी बात सुननेको मिल जानेसे [ कितने ही लोगोको ] संतोष हो जाता है कि दूसरे लोगोको ऐसी बात नही मिली ( किन्तु ) अपनेको तो मिली है न ! - ऐसे अधिकता मानकर जीव संतुष्ट हो जाता है । [ नीची दशावालोकी ओर दृष्टि रखना वह तो स्वयके लिए ही एक बडा भारी नुकसानका कारण है । ] ५७६. * तीनो लोकके सर्व पदार्थ ज्ञानमे आ जाये तो भी ज्ञान सभीको पी जाता है; और कहता है कि - अब और कुछ बाकी हो तो आ जाओ ! ५७७. [निज सुखके लिए ] सारे जगत्मे बस... 'मै ही एक वस्तु हूँ और कोई वस्तु है ही नही ।' अरे ! दूसरी कोई वस्तु है या नही है, ऐसा विकल्प भी क्यो ? ५७८. [ रागको ] ज्ञानका ज्ञेय...ज्ञानका ज्ञेय कहते है, और लक्ष्य रागकी ओर है तो वह, सच्चा ज्ञानका ज्ञेय है ही नहीं। [यथार्थतामे तो ] ज्ञानका ज्ञेय तो अंदरमे सहजरूप हो जाता है। लक्ष्य बाहर पड़ा हो और 'ज्ञानका ज्ञेय' ऐसा बोले तो मुझे तो खटकता है। वैसे ही 'योग्यता', 'क्रमबद्ध' आदि सभीमे लक्ष्य बाहर पड़ा हो और वैसा कहे तो मुझे खटकता है । ५७९. प्रश्न :- अपरिणामीका अर्थ क्या ? - आत्मा, पर्याय बिनाका । सर्वथा कूटस्थ है ? उत्तर :- अपरिणामी अर्थात् द्रव्यमे पर्याय सर्वथा नही है, ऐसा नही है । लेकिन पलटनशील-परिणमनस्वभावी पर्यायको गौण करके,

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