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________________ १७७ तत्त्वचर्चा सब शास्त्रोका एक ही सार है- 'त्रिकालीस्वभावमे अपनापन जोड़ देना है' । ५३३. विचार आदि तो पर्यायका स्वभाव होनेसे चलता ही रहता है, परन्तु ज़ोर ध्येय स्वभावकी ओर रहता है तो परिणति [ अन्तरमे ] ढल जाती है । ५३४. इसका [ ध्रुव-दृष्टिका ] बल आए बिना, [ जीव ] दूसरी जगह अटकेगा ही। ५३५. निश्चयमहाराजजीको नही जाना तो इन महाराजजी [ पू गुरुदेवश्री ] को भी विपरीत ही जाना । [ - यथार्थरूपमे नही जाना । ] [ निश्चय आत्मस्वरूपका अज्ञान होनेपर देव-शास्त्र-गुरुका भी यथार्थ स्वरूप जाननेमे नही आता अथवा प्राय विपरीत जानना होता है । ] ५३६. परिणाम( -प्रति )के रसको यमका दूत जानो । [ किसी भी प्रकारके परिणाम पर रसपूर्वक वजन जाता है तो उसमे बहुत नुकसान होता है अर्थात् स्वभावप्रतिका जोर नही आनेका कारण बनता है । ससारदशामे रागरस ही रहता है, यही अनत ससारका कारण है । ] ५३७. विचार करना - निर्विचार होनेके लिए। मिलना - फिर नही मिलनेके लिए । ५३८. * सच्चे देव, शास्त्र, गुरु भी 'स्वभाव'के अनायतन है । ५३९. परिणाम [ 'मेरा' ] अवलम्बन लेता है, 'मै नहीं' । ५४०. प्रौढ विवेक : 'मै निष्क्रिय चिन्मात्र वस्तु हूँ' । ५४१.
SR No.010641
Book TitleDravyadrushti Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVitrag Sat Sahitya Prasarak Trust
PublisherVitrag Sat Sahitya Trust Bhavnagar
Publication Year
Total Pages261
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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