Book Title: Dravyadrushti Prakash
Author(s): Vitrag Sat Sahitya Prasarak Trust
Publisher: Vitrag Sat Sahitya Trust Bhavnagar

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Page 241
________________ तत्त्वचर्चा होनेसे दोनो अगोका एक साथ ज्ञान रहता है । ] ५१९. ܀ [ द्रव्यका ] शुद्धपर्यायके साथ व्याप्य व्यापक सम्वन्ध पूरे द्रव्यके क्षेत्रके हिसावसे [ प्रमाणसे ] है । [ सामान्य, विशेषरूप नहीं हो जाता है । ] ५२०. ܀ पहते तो धारणा बराबर होनी चाहिए; लेकिन धारणा अन्तरमे उतरे तभी सम्यग्ज्ञान होता है । धारणामे भी लक्ष्य तो इधरका [ आत्माका ] होना चाहिए । ५२१. - ÷ पर्याय तीव्रसे तीव्र अशुभ परिणाम हो या उत्कृष्टसे उत्कृष्ट शुद्ध परिणाम हो 'मेरा' कुछ भी बिगाड़ - सुधार नही । 'मै तो वैसा का वैसा ही हूँ' । [ पर्यायगं कितना भी फेरफार हो लेकिन द्रव्य तो एकरूप रहता है, इसलिए ध्रुव- नित्य स्वभावके आगे किसी भी प्रकारकी क्षणिक-अनित्य पर्यायका मूल्य नहीं है । ] ५२२. मै पहले तो सब जान लूँ... सुन लूँ... पीछे पुरुषार्थ करूँगा; तो पीछेवाला सदा पीछे ही पीछे रहेगा । वर्तमान इसी क्षणसे ही पुरुषार्थ करनेकी यह बात है पहले अपने आत्माकी प्रभावना करनेकी बात है । ५२३. करोड़ों शास्त्र पढ़ो तो भी है, ऑमला ( गुवार / भड़ास ) है, १७५ ܀ अपने द्रव्यमे दृष्टिका तादात्म्य होते ही ज्ञान प्रमाण हो जाता है । ऐसे प्रमाण हुआ ज्ञान सभी बाते जान लेता है । [ अपनी आशिक शुद्धि, अशुद्धि और इनके निमित्त आदि सभीको प्रमाणज्ञान जान लेता है । ] ५२४. ܀ [ अनुभव - विना वह ] मात्र मनका बोझा भार है । ५२५. ܀ उल्लासमे उल्लास आ जावे, वह योग्य नही । [ राग होना वह उतना

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