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द्रव्यदृष्टि-प्रकाश (भाग - ३) है । जगत्मे मुझे मान या यश मिले, वह मुझे पसंद नही है । ५१३. [ अगत ]
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परिणामोके चक्रमे माथा ( सिर ) दिया तो हमेशा माथा फूटता रहेगा । ५१४.
[भव-भ्रमणसे ] थक गए हो तो [ स्वरूपमे ] बैठ जाओ; नही थके हो तो चलते रहो ! ५१५.
बन्ध तथा मुक्तिमे भेद नही है। [ दोनो एक समयका परिणाम है। ] द्रव्यको मुक्त कहना, कलंक है । तत्त्वरसिकजन, आसन्न भव्य, विज्ञानघनके रसीले पुरुष बन्ध-मोक्षका भेद नही देखते । ५१६.
प्रश्न :- गुरुदेवश्रीकी बात भी अच्छी लगती है और बाहरकी अनुकूलता भी अच्छी लगती है; जब कि गुरुदेवश्री फ़रमाते है कि 'एक म्यानमे दो तलवारे नही रह सकती' ?
उत्तर :- एक शुभ है, एक अशुभ है - दोनो जगहोसे हटकर, तीसरी [ शुभाशुभ रहित ] जगह आ जाओ । ५१७.
व्यवहारनयको अभूतार्थ कहा गया है, जिसका सार यह है कि 'परिणाम मात्र अभूतार्थ है।' ५१८.
अज्ञानी, उत्पाद-व्ययके साथ चला जाता है । ज्ञानीने नित्यमे [स्वभावमे ] अपना अस्तित्व स्थापित किया है, जिससे वह उत्पाद-व्ययके साथ चला नही जाता, [ उत्पाद-व्ययको ] जान लेता है । [ अज्ञानदशामे उत्पाद-व्ययरूप चलित भावमे अस्तित्व स्थापित रहनेसे स्वयके अनित्यरूपका ही अनुभव वर्तता है । जब कि ज्ञानदशामे नित्यस्वभावमे अस्तित्व स्थापित