Book Title: Dravyadrushti Prakash
Author(s): Vitrag Sat Sahitya Prasarak Trust
Publisher: Vitrag Sat Sahitya Trust Bhavnagar

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Page 238
________________ १७२ द्रव्यदृष्टि-प्रकाश (भाग - ३) है, उनके पास [ सर्वार्पण बुद्धिपूर्वक शरणमे ] जानेका भाव आता है । ५०१. शास्त्र इधरसे [ आत्मामेसे ] निकलते है तो इधरसे निकली सब बाते शास्त्रसे मिल जाती है । शास्त्र देखकर इधरका मिलान नही करना है, किन्तु इधरसे निकली बात शास्त्रसे मिलान कर लेना । [ शास्त्र देखकर स्वयकी समझको मिलान करनेकी पद्धति उचित नही है क्योकि इस पद्धतिसे स्वयके अभिप्राय अनुसार शास्त्रवचनका अर्थघटन ( समझ ) होनेकी सभावना है, और इसमे जो भूल रही हो तो वह शास्त्राधारसे और दृढ हो जाती है, साथ ही ऐसी पद्धतिसे ज्ञानीके वचन भी शास्त्र-आधारसे स्वीकार करनेका अभिप्राय रह जाता है जिससे प्रत्यक्ष सत्पुरुपके वचनपर प्रीति/भक्ति/विश्वास नही रहता । अतएव समझी हुई बातको अनुभवपद्धतिसे समझना चाहिए, और वैसे अनुभवको शास्त्रसे मिलान करना ही सही पद्धति है, अर्थात् उपादानकी मुख्यतावाली पद्धति ही सही पद्धति है । ] ५०२. निर्विकल्पता पर वज़न नही देना [ पर्याय पर वजन नही देना] - यह मेरेसे [ ध्रुव पदसे ] बड़ी थोड़े-ही है ? ५०३. सिद्धजीवोसे संसारीजीव अनन्त गुने है। फिर भी, सिद्धजीव संसारीजीवोंको अपनी ओर खीचते है । ( लेकिन ) संसारीजीव ( एक भी) सिद्धजीवको अपनी ओर नही खीच सकते । इससे ही सिद्धजीवोकी विजय सिद्ध हो गई। ५०४. पुरुषार्थके धाममे पुरुषार्थ जम गया, वही पुरुषार्थ है । ५०५. प्रश्न :- आत्मा तो दिखता नही, तो प्रत्यक्ष कैसे होवे ? उत्तर :- परिणाम तो दिखता है न ! तो परिणाम जिसमेसे आता

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