Book Title: Dravyadrushti Prakash
Author(s): Vitrag Sat Sahitya Prasarak Trust
Publisher: Vitrag Sat Sahitya Trust Bhavnagar

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Page 236
________________ १७० द्रव्यदृष्टि-प्रकाश (भाग - ३) ___ पर्यायको स्वसन्मुख करूँ, अन्तरमे वालु, अन्तरमे ढलुं - ऐसी-ऐसी [पर्यायके कर्तापनेकी ] सूक्ष्म भ्रांति जीवको रह जाती है । पर्यायका मुख (दिशा) पलटना है, इस अपेक्षासे यह बात सच है; लेकिन ध्रुवपर बैठते ही वह [ स्वसन्मुखपना ] सहज होता है । ४९३. जैसे भी परिणाम हो, लेकिन अपन उसके गुलाम क्यो ? [ 'मै' तो एक समयके परिणामसे निरपेक्ष ध्रुवतत्त्व हूँ। ] ४९४. स्वच्छन्दसे डरो मत ! [ स्वरूपके अभानमे ] अभी तक स्वच्छन्द ही तो चलता आया है। अब तो 'सहज स्वच्छन्द [-स्वमे प्रवृत्तिरूप ] दशा' प्रकट करो ! विवेक अपने आप आ जाएगा । ४९५. प्रश्न :- ध्रुवतत्त्वका माहात्म्य विशेष है कि ध्रुवको पकड़नेवाली पर्यायका ? उत्तर :- अपनी-अपनी अपेक्षासे दोनोका माहात्म्य है। असलमे तो ध्रुवतत्त्वका ही माहात्म्य है । पर्यायका माहात्म्य आनेसे तो जीव पर्यायमे बैठ जाता है। प्रश्न :- ध्रुवतत्त्व तो अभव्यमे भी है, लेकिन उसे पकड़ा नही तो क्या लाभ ? उत्तर :- अरे भाई ! भवि-अभवि दोनो 'अपन' नही । 'अपन तो ध्रुवतत्त्व है जिसमे इन दोनोका अभाव है। ४९६. रुचि अपने कार्यमे बाधा नहीं आने देती है, वह संयोगको और विकल्पोको नही गिनती । [ स्वरूपकी ] रुचि हो तो हर समय यही का यही [ स्वरूपका ] चितन' चलता रहे । ४९७. दूसरोको लगे कि मै देख रहा हूँ, लेकिन कोई ( घरमे ) चोरी कर'

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