Book Title: Dravyadrushti Prakash
Author(s): Vitrag Sat Sahitya Prasarak Trust
Publisher: Vitrag Sat Sahitya Trust Bhavnagar

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Page 234
________________ १६८ द्रव्यदृष्टि-प्रकाश (भाग - ३) उदय तो है, लेकिन उसमे [ भोगनेमे ] वह पापकी पुष्टि करता है । वैसे ही देव-शास्त्र-गुरुका मिल जाना यह पुण्यका उदय लो है, लेकिन उनके प्रतिके भावमे [शुभभावमे] मग्नता [ एकत्वबुद्धि] होनी, वह मिथ्यात्वके पापकी ही पुष्टि है। [ देव-शास्त्र-गुरु वास्तवमे तो भेदज्ञानके निमित्त है । फिर भी जो जीव इस तथ्यसे अनभिज्ञ है, वह मात्र शुभभावमे एकत्वबुद्धिको दृढ करता हुआ परिणमता है, जिससे उसे आत्महितकी जगह उलटे मिथ्यात्वकी ही पुष्टि हो जाती है । ] ४८६. रात्रिमे निद्रा सहज कम हो जाती है, क्योकि आराम तो सच्चे स्वरूपमे ही है तो उस तरफ़की एकाग्रतामे निद्रा तो सहज ही कम हो जाती है। जिसको सारे दिन इधर-उधरके विकल्पोकी थकान बहुत होती है उसको आरामके लिए निद्रा विशेष आती है । लेकिन जिसको इधर-उधर करनेका कर्तृत्व ही टूट गया है उसे थकान न होनेसे निद्रा भी कम आती है । जैसे मुनिराजोंको अन्तरकी जागृतिके कारण विकल्पकी थकान नही है तो निद्रा भी कम है। मुझे तो ( सोते वक्त ) पहले दो घण्टे नीद नहीं आती है, फिर थोड़ी नीद आजाए तो जगते ही ऐसा लगता है कि - क्या नीद आगयी थी ! पीछे नीद उड़ जाती है और यही [ स्वरूप-घोलन ] चलता रहता है । ४८७. [ अगत ] जैसे उधरके पण्डितोंको लगता है कि हम सब जानते है; वैसे वांचनकार हो जावे और उघाड़ हो जाए तो ( लोग ) 'हम समझते है' - [ ऐसे अहम्मे ] अटक जाते है । - ऐसे वह उघाड़, रुकनेका ( अटकनेका ) साधन हो जाता है । पण्डितोका संसार तो शास्त्र कहा है न ! ४८८.

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