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तत्वचर्चा
१६९ असलमे सुनने आदिका रस कम हो जाना चाहिए, - वह कम कव होगा ? कि - जब अन्दरका रस बढ़ता जावे तभी उधरमे रस कम होता जाता है । [ इसलिए ] शुरूसे ही उधरमे [ सुनने अदिगे] ज़ोर नही आना चाहिए । [ मुमुक्षु जीवको शुभभावमे रस आता है, वह भी विभावरस ही हे | सिद्धान्त तो यह है कि कही भी ( शुभाशुभभावमे ) विभावरस तीव्र नही होना चाहिए । अत ऐसी समझपूर्वक अत्यन्त सावधानी रहनेसे, उक्त प्रतिवन्धक रस तीव्र न होनसे, अन्तरस्वभावरस उत्पन्न होनेका अवकाश वनता है, ओर वेसे अवकाशसे अन्तर्वभावरस आविर्भूत होनेकी प्रक्रिया सम्भवित है । ] ४८९.
दूसरोके लिए अमुक प्रवृत्ति करना, वह तो बोझा हो गया । यहाँ [ मुझे ] तो सहजकी आदत है । दूसरे अपने लिए चाहे जैसा अभिप्राय बाँध ले । । निर्दोपको शका या चिता नही रहती । परलक्ष्यीप्रवृत्ति लोकसज्ञारूप आत्मघाती बड़ा भारी दोप है । ] ४९०. [ अगत ]
प्रश्न :- यह सभी बात सत्य है, लेकिन विकल्प टूटता नही है ?
उत्तर :- विकल्पसे क्यो डरते हो? इसको भी इसीकी सत्तामे रहने दो और तुम तुमारी त्रिकाली सत्तामे रहो । विकल्पको तोड़ने-मोड़ने जाओगे तो तुमारी ध्रुवसत्ताका [ श्रद्धामे ] नाश होगा, और फिर भी ये विकल्प तो टूटेगे नही । ४९१.
सागरो तक बारह अंगका अभ्यास करते है, लेकिन इस परलक्ष्यी ज्ञानसे तो नुकसान ही नुकसान है । जो उपयोग बाहरमे जाये तो दुःख होवे ही; स्वउपयोगमे ही सुख है। [यहॉ परसत्तावलम्बनशीलज्ञानका निषेध है। ] ४९२.