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द्रव्यदृष्टि-प्रकाश (भाग - ३)
अपनेसे अपनी पात्रता मालूम हो जाती है; दूसरा कहे, न कहे - इससे मतलब नही है । द्रव्य स्वतंत्र है न ! इसको परकी अपेक्षा ही नही है। ४७६.
प्रश्न :- ज्ञानीको आंशिक शुद्धताका ध्येय नही है ?
उत्तर :- आंशिक शुद्धता क्या ? पूर्ण शुद्धताका [ एक समयकी भेदरूप अवस्थाका ] भी ज्ञानीको ध्यान नहीं है । 'मैं तो त्रिकाल शुद्ध ही हूँ।' ४७७.
आचार्यदेवने 'नियमसार' में कहा है कि - भाई ! केवलज्ञानादि ( क्षायिक ) पर्याय भी परद्रव्य है, परभाव है, हेय है । - तब तुम क्षयोपशमज्ञानमे तो रुको ही मत । ४७८.
जहाँ तक परिणामका लक्ष्य रहता है वहाँ तक 'मै पुरुषार्थ करूँ, अन्तरमे वतुं ( टर्जु)- ऐसे कर्तृत्वका बोझा रहा ही करता है। इसलिए तो कहता हूँ कि 'भाई ! तू परिणाम मात्रका लक्ष्य छोड़ विकल्प-निर्विकल्प सभी पर्यायोंका लक्ष्य छोड़; अनुभव हुआ, नही हुआ वह न देख ।' [ मुमुक्षुजीवको तत्त्वविचार चलता है, उसमे जब तक उक्त प्रकारके परिणाम आते है तब तक उसका वैसे परिणामोपर वजन | जोर जाता है तो जिस मात्रामे पुरुषार्थ सामान्यस्वरूपके प्रति होना चाहिए, वह उत्पन्न नही हो पाता है । अतएव तत्त्वविचारक मुमुक्षुको तदविषयक अत्यन्त सावधानी आवश्यक है। ] ४७९.
मिथ्यात्व हो या सम्यक्त्व हो, यह देखो ही मत ! 'मै तो ध्रुव तत्त्व हूँ' - यहाँ आते ही मिथ्यात्व-पर्याय भी निश्चयसे-नियमसे चली जाएगी । दृष्टिके निर्णयमे पूर्ण शुद्धि भरी हुयी है। [ दृष्टिके विषयभूत स्वस्वरूपमे पूर्ण