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द्रव्यदृष्टि-प्रकाश (भाग -३) ध्रुवतत्त्वको समझनेके लिए पर्यायके सिवाय अन्य कोई उपाय नही है, इसीलिए पर्यायसे सभी बाते कहनेमे ( समझानेमे ) आती है । ४६६.
[ एक समयका ] अनन्त आनन्दका वेदन आवे - वह भी 'मैं' [त्रिकाली तत्त्व] नही हूँ क्योकि वेदनका 'मेरे' मे [ त्रिकालीमे ] अभाव है । 'मै' एक समयके वेदनमे आ जाऊँ तो 'मेरा' नाश हो जाए । [ 'मै' एक समयकी पूर्ण पर्याय जितना ही नही हूँ, लेकिन पूर्ण पर्यायसे भी अधिक हूँ - ऐसा कहनेका भाव है। ] ४६७.
विकल्प उठे तो ऐसा कहे कि 'हे गुरु ! आप मेरे सर्वस्व है' ( लेकिन ) उसी समय अभिप्राय तो यह कहता है कि 'मुझे आपकी ज़रूरत नही,' 'मेरा सर्वस्व तो मेरे पास है। इतना विश्वास और ( स्वरूपका ) उल्लास तो ज़रूर आजाना चाहिए कि [ मेरे कार्यके लिए ] मुझे देव-गुरुकी भी ज़रूरत नही; सुनने-करनेकी भी ज़रूरत नही, मेरा कार्य मेरे [ अन्तर्-पुरुषार्थ ] से ही होगा । ४६८.
दूसरेमे लाभबुद्धि है, तभी तो उसीमे जुड़नेकी तीव्र वृत्ति नियमसे रहती है । ४६९.
दृष्टि तो हर समय अपनेको पूर्ण ही देखती है । मुनि भी ऐसा कहते है कि 'हम तो पामर है' लेकिन उन्हे तो अपनी खिली हुई परिणतिका मुकाबला पूर्ण ( स्वरूप ) के साथ करते हुए, अपनी पामरता लगती हैइस अपेक्षासे [ अपनेको पामर ] कहते है । दृष्टि तो साधक-बाधकपना ही नही स्वीकारती है । ४७०.
पर्याय नई घड़नी नही है । इधर [ अन्तर ] दृष्टि होते, [शक्तिरूप | योग्यतारूप] पड़ी है...सो प्रकट हो जाती है । ४७१.