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द्रव्यदृष्टि-प्रकाश (भाग - ३)
आता है । ४४१.
'दृष्टि' वस्तुका अवलम्बन क्या लेती है !! - वह तो समूची वस्तुको ग्रास कर ज. है पूरी की पूरी वस्तुमे व्याप्त हो जाती है; मालिक बन जाती है। मालिक कहनेमे भी भेद आ जाता है, 'दृष्टि' तो स्वयं ही उस वस्तुरूप है । ४४२.
'वेदान्त' न हो जाए; इसलिए जरा-सी पर्यायको बताते है, तो [ अज्ञानी ] वहाँ चोट [ चिपक ] जाता है । ४४३.
'पर्यायमे अपनापन' - वही असलमे 'बौद्धमति' है । ४४४.
सहज सुख [ अन्य ] सभीका सहज ही निषेध करता है । ४४५.
एक आदमीने कहा कि मुझे तो ज्ञानमार्ग कठिन लगता है, भक्तिमार्ग अच्छा लगता है। अरे भैया ! एक ही चीज़मे [ स्वरूपमे ] रस आना-वही भक्ति है । भक्तिके रागका अनुभव तो अमृतको छोड़कर कीचड़का अनुभव है । अपनी चीज़मे स्थिर होकर ठहर जाना, वही यथार्थ [ अभेद ] भक्ति है । ४४६.
रुचि तो उसको कहते हैं कि जिस विषयकी रुचि होवे उसके बिना एक क्षण भी नही चल सके । पतंगा दीपकको देखते ही चोट (झपट ) जाता है, विचार नहीं करता । ऐसे ही, विचार...विचार करते रहनेसे क्या ? वस्तुके ही चोट जावो ! पूरी की पूरी वस्तुमे व्याप्त होकर ( उसे ) ग्रस लो ! ४४७.
[ उघाड पर जिसकी दृष्टि है, उसको ] क्षयोपशम बढ़ता जाता है तो साथ-साथ अभिमान भी बढ़ता जाता है । ४४८.