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तत्त्वचर्चा
१५९ होनेपर भी दुख नही लगता है इसका कारण यह है कि उसे धारणाज्ञानमे ही सन्नोप वर्तता है, जिससे सुखके लिए प्रयास चालू नही होता है । ] ४३६.
इधरकी [त्रिकालीकी ] दृष्टि होते ही [ पर्याय अपक्षा ] मुक्ति चालू हो जाती है । चालू क्या हो जाती है । [ द्रव्यदृष्टिअपक्षा या भावीनवसे ] मुक्ति हो ही गई। ४३७.
असलमे द्रव्यका [ भावभासनपूर्वक ] पक्का ( यथार्थ ) पक्ष आ जाना चाहिए । अनादिका पर्याय-पक्ष छूट जाना चाहिए । ४३८.
प्रश्न :- अन्दरमे तो कुछ दिखता नही और स्थिरता होती नही, इसलिए सुननेका भाव [ अभिप्राय ] रहता है। - क्या करे? . उत्तर : - इसमे तो व्यवहार श्रद्धा भी नही आई । 'सुननेका अभिप्राय ही नही होना चाहिए।' [ सुनका गग हाना और अभिप्राय होना - इन दोनोमे बहुत फर्क है । ] सुनते ही इधरका [ अतर्मुखताका ] प्रयास चालू हो जाना चाहिए । [ नत्त्वश्रवणकं सम्बन्धमे ऐसा अभिप्राय रह जाना कि श्रवण करते-करते-आत्मलान हाँ जाएगा तो वह साधनविषयक वुद्धिपूर्वककी भूल हे जिससे गृहीनमिथ्गत्व होता है । जिसका सुनते ही प्रयास चालू होता है, ऐसें वर्तमान पात्र जीवके वैसी भूल नही हाती । यद्यपि सुननेका राग छद्मस्थअवस्था नक समव है तथापि यथार्थतामे किसी भी रागका अभिप्राय नहीं होना । गग व रागके अभिप्रायमे दिन-रात जितना अन्नर है ।] ४३९.
[ भेदबुद्धिस ] एक-एक पड़खेको जानने जाते है तो अखण्ड वस्तु जाननेसे रह जाती है। ४४०.
उपयोग बाहरमे जाता है तो 'अपने' [निर्विकल्प] अनुभवमे अन्तराय