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तवन [दिनन आधिक ] भी निषेध करते-करते आगे बढता है । [ ख. पन्न, किन दिनन. निरजन : i ni t - मा व्यानी
किन माना जो चिननक जगदलिप
बदना Fत ददनम
111] ४२५.
'खुद ही से काम लोगा' यह तो पहले ही पक्का हो जाना चाहिए। खुदका चल आए विना तो [...] कोई आधार [ ] नही है । ४२६.
'में वर्तमानमे ही परिपूर्ण हूँ' -ऐसा गुनते ही, कुछ करना कराना है ही नहीं - ऐसा जलास तो प्रथमसे ही आना चाहिए और फिर उसीकी पूर्तिके लिए प्रयास करना है । ४२७.
'पहले में सब समझ लू [27 क] पीछे प्रयास करूँगा' - ऐसे तो कार्य होगा ही नहीं । [1-1] प्रयास तो सुनते ही चालू हो जाना चाहिए । फिर धोडी रुकावट आवे तो उसे दूर करनेके लिए सुनने-समझनेका भाव आता है; परन्तु में वर्तमानमे ही परिपूर्ण हूँ' - वहाँ चोटे ( वलगे) रहकर ही सव प्रयास होना चाहिए - वहाँसे तो छूटना ही नहीं चाहिए । ४२८
केवलज्ञानसे अपनेको लाभ होनेवाला नहीं ओर शुभाशुभभावोसे अपनेको नुकसान होनेवाला नहीं, 'मे तो ऐसा तत्त्व हूँ।' [ ध्रुवतत्त्व, उत्पाद-व्ययम निरपा है - ऐसी दृष्टिकी बात है।]
जैसे कोई मेरुसे माथा फोडे तो उससे मेरु हिलता नही है, ऐसे ही परिणाम मेरेसे टकराते है तो भी 'अपन' परिणामसे हिलनेवाले नहीं है। ४२९.