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तत्त्वचर्चा
[ चर्चा सुननेवालोको लक्ष्यमे लेकर ] सुननेकी रुचि तो सभीकी ठीक है; परन्तु उससे अनन्तगुनी रुचि अन्दरकी होनी चाहिए। [वास्तवमे स्वरुपकी रुचिका ऐसा स्वरूप है कि इसके आगे तत्त्व सुननेकी रुचि कुछ नही है । अत तत्त्व सुनने-पढने आदिकी रुचिमे मुमुक्षु जीवको ठीकपना नहीं लगना चाहिए । 'अन्तर्मुख होनेमें बहुत बाकी है' - ऐसा खयाल रहना चाहिए । ]
४१३.
प्रश्न :- सुख तो अन्दरमे है, फिर वृत्ति बाहरमे क्यो दौड़ती है ?
उत्तर :- 'सुख अन्दरमे लगा ही नहीं वह तो नाम-निक्षेपसे ख़यालमे आया है कि सुख 'यहाँ' है; असलमे तो [ भावभासनपूर्वक ] वैसा लगा नही । ४१४.
प्रश्न :- अब तो [ समझ हुए पीछे ] प्रयोग करनेका रहता है ?
उत्तर :- फिर भी वही बात आ जाती है ! प्रयोग ही 'मै' नही हूँ, तो करना क्या ? प्रयोग पर्यायमे हो जाता है । ४१५.
असलमे बलवान वस्तुका बल आना चाहिए । ४१६.
विकल्प, दुःखरूप लगना - यह भी नास्ति है । अस्तिमे तो 'मै सुखसे भरपूर हूँ, सुखकी खान हूँ।' ४१७.
[ चर्चा सुननेवालोके प्रति ] सभीकी लगनी तो अच्छी है; लेकिन यथार्थ लगनी लगे तो हर समय यही [ स्वरूपटण ] चलता रहे [ - इसमे ] कितना समय चला जाये मालूम ही न पड़े। रुचिका स्वरूप ही ऐसा है कि - जहाँ लगे वहाँ काल (समय) दिखे ही नही । ४१८.
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प्रश्न :- परिणतिको अन्दर कैसे वालना [अन्तर्मुख करना ] ?