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द्रव्यदृष्टि-प्रकाश (भाग - ३) उत्तर :- परिणति 'वालना' और 'नही वालना,' वह [ऐसा कर्ता] 'मैं' नही हूँ - ऐसी दृष्टि होते ही परिणति वल (झुक ) जाती है । ४१९.
किसीके भी प्रति अनहद प्रेम हो तो ख़ुदको ही भूल जाते है । ४२०.
बात सुनते ही चोट लगनी - यह भी एक पात्रता है । ४२१.
बोलनेमे खुदका अभिप्राय आए बिना रहता ही नही । दूसरेकी बात कहने जावे लेकिन अपना रस साथमे आ जाता है । ४२२.
- [अज्ञानीकी ] धारणा तो बन्द तिजोरीके माफ़िक है, धारणा जवाब नही देती । प्रसंग आनेपर दुःख तो वेद ही लेवे, और फिर थोड़ी देर पीछे स्मरण करके समाधान करे - ऐसी धारणाका क्या ?? अनुभववालेकी तो तिजोरी खुली हुई है । ४२३.
'पक्ष करना' कहनेमे आता है तो जीव पक्षमे बैठ जाता है । अरे भैया ! [ पक्षातिकात होनेवालेको ] पक्ष तो हो जाता है, ( उसे ) स्वभाव रुचता है तो स्वभावका पक्ष हो ही जाता है। लेकिन पक्ष करने तक का ही प्रयोजन थोड़े है ? ४२४.
प्रश्न :- पहले चितन होता तो है न ?
उत्तर :- अरे भाई ! पहले-पीछेकी बात ही नही है; 'मै ही पहला हूँ' - यहॉसे लो । चितन हो...लेकिन 'पहले' कहनेसे तो उसपर वज़न आ जाता है।
चितन आदिसे आगे बढ़ना होता है - ऐसा कहने में आता है; चूंकि पहले लक्ष्य यथार्थ होगया है तो इसका चितन चलता है, लेकिन इसका