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तत्त्वच
खुदसे च्युत होना ही सबसे बड़ा पाप है । ४०३.
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व्यवहारसे जो-जो साधन कहनेमे आते हे वे सभी [ निश्चयसे ] एकान्तरूपसे बाधक है । ४०४.
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( मुनिको ) विकल्प - अंश क्षण-भर आता हे तो कहते है कि 'आकाश आदिसे भी गुरु महान हैं, गुरुकी महानतामे तो आकाश राईके दानेके समान है' ऐसा सुनकर [ व्यके पक्षकाला जीव ] वहाँ चीट जाता हैं कि इतने महान है तो में विनयादि बरावर करूँ, नही तो निश्चयाभासी हो जाऊँगा । परन्तु भाई ! निश्चयगुरु तो अपना आत्मा हे;
वह पड़ा
रहा ! ४०५.
दृष्टिका नशा चढ़ जाए तो बारम्बार अन्तरमे ही वलण होता है चाहरमे कुछ रुचता ही नही । ४०६.
प्रश्न :- तो क्या नशेकी माफ़िक दृष्टिका स्वरूप हे ? अन्य कुछ देखती ही नही ।
उत्तर :- हॉ! दृष्टिका नशा ही ऐसा है, अन्य कुछ देखती ही नही; एक अपनी ओर [ स्वम्पकी ओर ] ही दौड़ती है । इसीलिए तो कहते है कि सम्यग्दृष्टिको वाहरमे, चर्चा आदिमे रुकना रुचता ही नही, वह तो अन्दर ही अन्दर जाना चाहता है । ४०७.
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शास्त्रमे आता है कि मुनिको रोग आदिके होनेपर वैयावृत्त्य करनी चाहिए । अरे भाई ! ऐसा तो उस कालमे सहज विकल्पमे खड़ा हो, उसकी बात है। मुझे ऐसा करना चाहिए, ऐसा करना चाहिए - ऐसी पहलेसे दृष्टि रखी तव तो आस्रवकी भावना होगई । [ यद्यपि धर्मात्माको गुणस्थान अनुरूप सविकल्पदशाके कालमे यथोचित विकल्प सहज आ जाता