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द्रव्यदृष्टि-प्रकाश (भाग - ३) तभी उधरसे छूटकर अन्दरमे गए बिना नहीं रह सकते । युक्ति आदिसे दुःख समझा, वह तो सहज दुःख कहाँ लगा ? अन्दरसे तीव्र दुःख सहज लगे तो उधरमे थकान लगनेसे, वहाँ रुक ही नही सकते; इसीसे स्वरूपमे सहज ही आना होता है । ३९९.
[त्रिकालीमे ] ढलन तो निरन्तर रहती ही है । [ एकान्तमे ] तत्त्व-विचारकालमे [ ढलन ] विशेष होती है। लेकिन विचार तो अटकाव ही है, यह [ विचार आदि ] विशेष ढलनका कारण भी नही है । अशुभप्रवृत्तिमे अन्दरमे ढलन चलती है और वृद्धि होती है; तत्त्व-विचार के कालमे विशेष वृद्धि होती है। लेकिन ये विचार आदि] विशेष वृद्धिके कारण नहीं है वे तो अटकाव ही है, इसलिए विचारमे अधिकता नही होती।
त्रिकालीमे ढलन होनेसे अपनने तो पर्याय मात्रको गौण कर दिया है - ध्रुवदल ही अधिक है। [ मोक्षमार्गमे विचरते ज्ञानीकों अपने पुरुषार्थ अनुसार ढलन ( परिणति ) निरन्तर वर्तती है, और वह अन्तपरिणति सामान्यरूपसे शुभाशुभ दोनो भावोकी प्रवृत्तिके समय भी वृद्धिगत होती रहती है | फिर भी विशेषरूपसे शुभाशुभभावोमे चारित्रमोहनीयके रसकी मात्रा जितनी कम-अधिक होती है उसीके अनुपातमे पुरुषार्थकी न्यूनाधिकता होती है । ] ४००. [ अगत]
दुःख है तो सही, मगर उस दुःखसे बचायेगा कौन ? "खुद ही शरण है" -यही पू. गुरुदेवश्री कहते है । ४०१.
मुक्त-शुद्ध पर्यायसे द्रव्यको मुक्त व शुद्ध बताना - वह तो कलंक है । स्त्री द्वारा पुरुष [ - पति ] की पहचान कराना, वह तो पुरुषकी हीनता है। ४०२.