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देव आदि तथा स्त्री आदि सभी एक अशुद्धताके ही निमित्त हैं; और शुद्धताका निमित्त तो एक 'आप' ही है । [ सभी प्रकारके पराश्रित परिणामोसे तो अशुद्धताकी ही उत्पत्ति होती है । शुद्धताकी उत्पत्ति तो एक मात्र स्वाश्रित परिणामसे होती है । ] ३८८.
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जिस भावसे तीर्थकरगोत्र बँधता है, वह भाव भी नपुंसकता है - अपन तो ऐसे लेते है । ३८९.
द्रव्यदृष्टि-प्रकाश ( भाग - ३)
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अपने यहाॅ तो कच्ची-पक्की भूमिकाकी बात ही नही है । जो भूमिका [ आश्रयस्थान ] प्रथम है, सो ही अंतमे है । अर्थात् अपन तो ऐसी भूमिका लेते है जो सदैव टिकती है, त्रिकाल है । ३९०.
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त्रिकाली एकत्व होनेपर राग ऐसा भिन्न दिखता है कि जैसे अन्य चीज़ प्रत्यक्ष भिन्न दिखाई देती है राग इतना प्रत्यक्ष जुदा दिखता है । ३९१.
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भगवानकी भक्तिका अर्थ - गुणानुवाद । शास्त्रस्वाध्यायमे तो इससे भी अधिक भक्ति है । ३९२.
विकल्पमे दुःख ही दुःख लगना चाहिए । न्याय - युक्तिसे तो ऐसा माने कि ये विकल्प शान्तिको रोकते है, अनुभूतिको रोकते है तो दुःखरूप
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है; किन्तु अनुभवमे दुःख लगे तो दुःखसे हटकर सुखकी ओर जावे ही ।
[ वेदनके विषयको मात्र समझमे लेने जितना ही नही रखना चाहिए । परन्तु
सुख-दुख जो वेदनका विषय है, उसकी समझ वेदनसे ( अनुभवसे ) करनी चाहिए । ] ३९३.
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बंधन रहित स्वभाव के लिए वांचन-मनन- घूँटण करूँ तो पकड़मे आवे,