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द्रव्यदृष्टि-प्रकाश (भाग - ३) कहना तो गाली है । पर्यायको मुक्त कहो वह तो ठीक है, क्योकि वह बन्धी हुई थी । परन्तु 'मुझे तो मुक्त कहना भी ठीक नही है । ३७५.
परिणति, द्रव्यको कहती है कि - मै भी स्वयं सत् हूँ, स्वतन्त्र हूँ, द्रव्यका अवलम्बन लेती हूँ - यह भी अपेक्षासे कहनेमे आता है; क्योकि पर-तरफ़का वलण (झुकाव) छूटा है, इसलिए ऐसा कहनेमे आता है। असलमे तो परिणति अपने स्व-सतमे ही है। ३७६.
इतनी-सी बात है - जो उपयोग परमे झुकता है, उसको स्वमे झुकानेका है । ३७७.
बात यह है कि जितना तीव्र दुःख [ विकारी] पर्यायमे लगे उतना ही शीघ्रतासे मार्ग प्राप्त होवे, कम दुःख लगे तो देरी लगे । ३७८.
ध्रुवगुफाके अंदर चले जावो - वहाँ आनन्द और सुखका निधान भरा है, उसको नित्य भोगो ! ३७९.
पुरुषार्थ तो चारित्रमे है, दृष्टिमे क्या पुरुषार्थ ! प्रश्न :- क्या दृष्टिमे पुरुषार्थ नही है ?
उत्तर :- दृष्टिमे पुरुषार्थ तो है, लेकिन चारित्रकी अपेक्षासे बहुत कम पुरुषार्थ है । चारित्रमे तो बड़ा पुरुषार्थ है। [जिस पुरुषार्थसे सम्यग्दर्शन होता है उसकी तारतम्यता तथा मुनिदशायोग्य पुरुषार्थकी तारतम्यतामे कितना बडा अन्तर है, वह सम्यग्दृष्टिको ही मालूम पड़ता है । परन्तु मिथ्यादृष्टिको पुरुषार्थ विषयक ऐसा ज्ञान नही होता । ] ३८०.
[बीमारीकी व्याख्या, ऐसी कही - ] उपयोग बाहर ही बाहर घूमता रहे...वस यही बीमारी है, इसीको मिटाना है । ३८१.